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प्राचीन अधमागधी की खोज में/के. आर. चन्द्र
(३) 'आत्मन्' शब्द
__ आचारांग में इसके लिए अत्ता, आता और आया तीनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इनमें से आया शब्द क्या स्पष्टतः परवर्ती काल का रूप नहीं है ? आता के मध्यवर्ती 'त' के लोप से बने आया शब्द पर व्याकरणकारों का ही प्रभाव है ।
सूत्रकृतांग (1.4.2.22. आल्सडर्फ) में अध्यात्म के लिए अज्झत्त(विसुद्धे) का प्रयोग है जबकि अन्य संस्करणों में अज्झत्थ (विसुद्धे) मिलता है जो परवर्ती प्रयोग है (देखिए Kleine Schriften, p. 200). (४) 'मोक्ष' शब्द (उत्तराध्ययन, अ. ४.३)
(अ) मोक्खु (पुण्यविजयजी, म. जै.वि.) पाठान्तर-मुक्खु, मुक्ख । (ब) मुक्ख (शाण्टियर संस्करण)
शब्द के द्वितीय पाठ में संयुक्त व्यंजन के पहले जो ओ का उ कर दिया गया है यह भी परवर्ती भाषाकीय प्रभाव ही है । (५) व्यंजन ळ (वैदिक) का प्रयोग।
व्याकरणकारों का कहना है कि ळ का प्रयोग सिर्फ पालि और पैशाची तक ही सीमित है । परंतु इसका प्रयोग आचारांग और सूत्रकृतांग में किसी न किसी प्रकार कहीं न कहीं बच गया है :
लेळु, लेढुसि (आचारांग, पिशल 379), लेळुणा (आचारांग, सूत्रकृतांग, पिशल 304, 379) ।
इस 'ळ' के स्थान पर आधुनिक संस्करणों में 'ल' मिलता है । प्राचीनता किस प्रकार अदृश्य होती गयी उसका यह भी एक अच्छा उदाहरण है । (६) नीचे दिये जा रहे पाठान्तरों में परवर्ती काल की भाषाकीय लाक्षणिकताएँ स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रही हैं:
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