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________________ सम्पादकीय एवं प्रकाशकीय मुझे इस प्रकार के अध्ययन और उसे ग्रंथबद्ध करनेकी प्रेरणा श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित 'आचारांग'से ही मिली । उसमें मूलग्रंथकी प्रतों और चूर्गी का उपयोग करके अनेक पाठान्तर दिये गये हैं । इस संस्करणकी जब शुचिंग महोदय द्वारा संपादित आचारांग के साथ तुलना की गयी तब तो भाषाविषयक बड़ा ही आश्चर्य हुआ । शुकिंग महोदय के संस्करण में शब्दावली प्रायः महाराष्ट्री प्राकृत की है, अर्थात् राकरणकारेराने महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के लिए ध्वनि-परिवत न सम्बन्धी जो नियम बनाये उनका प्रायः अक्षरशः पालन किया गया हो ऐसा लगा जबकि उन्हों के द्वारा सम्पादित 'इतिभासियाई" ग्रंथ देखा गया तो और भी आश्चर्य हुआ कमोंकि इसमें मध्यवती 'तको 'त-श्रुति मानकर उसे सर्वथा निष्कासित नहीं किया गया है और इस व्यजनके अलावा अन्य अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनांकी यथावत् स्थिति भी जगह जगह पर मिलती है । आगम दिवसकर पू. मुनि श्री पुण्यविजय जी और प. श्री बेचरमाई दोशीका भी यही कहना था कि अर्ध. मागधी आगमों में मध्यवती थजनोंका लोप इतने प्रमाण में नहीं था जितना आजके संस्करणों में मिल रहा है । इस प्रकार यदि अधमागधी भाषा भी पालि भाषाकी तरह पुरानी है और अशोक के शिलालेखोसे पहले की भाषा है तब तो उसका रूप दूसरा ही होना चाहिए था | अध्ययनकर्ताओंकी और ले हियोंकी अनेक पीढियों के हाथ मूल अर्घमागधीका अनेक शताब्दियों दरम्यान रूप ही बदल गया । इस तथ्य के प्रमाण हमें हस्तप्रतोंमें मिल रहे हैं । इन सब प्रमाणों को यहाँ पर मयबद्ध किया गया है । यह तो मात्र अन्वेषणका प्रथम प्रयत्न है, इस सम्बन्धमें मेरे ख्यालसे अभी आगे और कार्य करने की आवश्यकता है । उपलब्ध हस्तप्रतोसे सभी पाठान्तरों की सूची बनाकर उनमेंसे भाषाकी दृष्टिसे जो जो प्राचीनतम पाट हैं उन्हें खोज निकालना चाहिए । इस सम्बन्धमें एक और कार्य करनेकी आवश्यकता प्रतीत होती है । वह यह कि अर्धमागधी आगम साहित्य में से मूल अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृतके शब्दों और रूपोंको अलग अलग किया जाना चाहिए जिससे प्राचीन अर्धनाग का स्वरूप स्पष्ट हो सके । यह तो संशोधन कार्य करनेवाली किसी मातबर संस्थाका कार्य है, किसी एक व्यक्ति द्वारा यह कार्य किया जाना बहुत कठिन है । आशा की जाती है कि शोध संस्थाएँ, सरकार और जैन समाज इस विषय पर ध्यान देंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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