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________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/ के. आर. चन्द्र शुर्निंग महोदय ने मात्र एक ही रूप 'खेयन्न' को आचारांग ( प्र श्रुतस्कंध ) में सर्वत्र अपनाया है परन्तु जै, वि. भा. के संस्करण में 'खेयण' भी मिलता है, आगमोदय समिति के संस्करण में भी स्वेयण भी मिलता है और म, जै. वि. के संस्करण में खेयण्ण, खेतण्ण और खेत्तण्ण तो मिलते हैं परन्तु खेयन्न नहीं मिलता है । इस शब्द का संस्कृत रूप 'क्षेत्रज्ञ' है जिसका अर्थ है 'आत्मज्ञ' और इस खेयन्न का परवर्ती काल में टीकाकारों ने 'खेदज्ञ' के साथ जो संबंध जोड़ा है वह काल्पनिक है और (मूल भाषा को न समझने से भ्रान्ति के कारण ) कृत्रिम परिभाषा देकर उसे ( तोड़ मरोड़ कर ) प्रयत्न किया गया है जिससे तुरन्त मध्यवर्ती द का श्रुति से द का य हो जाता है । यह तो मात्र = माय और पात्र = पाय जैसा परिवर्तन हुआ और आत्म - अत्त - आत आय जैसा विकास है । समझाने का और य लोप १०४ (1) अतः क्षेत्रज्ञ में त्र के स्थान पर द लाने की जरूरत नहीं थी । (2) प्राचीन प्राकृत भाषा मेंत्र का त्त ही हुआ था न कि 'त' या 'य' । (3) अशोक के पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में ज्ञ का न्न है, न कि ण्ण । ( 4 ) सामान्यतः न्न का ण्ण ई. स. के बाद में प्रचलन में आया है और वह भी दक्षिण और उत्तर पश्चिम क्षेत्र से । (5) न्न = ण्ण पूर्णत: महाराष्ट्री प्राकृत की ध्वनि है न कि पालि मागधी, पैशाची या शौरसेनी की । (6) अतः मूल अर्धमागधी भाषा में न्न = ण्ण का प्रयोग करना उस भाषा को जबरदस्ती से या जाने अनजाने महाराष्ट्री भाषा में बदलने के समान है और क्या यह मूल अर्धमागधी भाषा के लक्षणों की अनभिज्ञता के कारण ही ऐसा नहीं हुआ है और हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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