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आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की अर्धमागधी भाषा
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6. मध्यवर्ती त और थ का क्रमशः कभी द और ध मिले तो उसे प्राचीनता का लक्षण माना जाना चाहिए । कभी कभी द का त मिले तो उसे भी प्राचीन और उसके लोप के पहले की अवस्था मानी जानी चाहिए ।
7. कभी कभी पालि की तरह ळ मिले तो उसे ड में बदलने का नियम नहीं होना चाहिए (देखिए आचार्य श्री हेमचन्द द्वारा दिया गया उद्धरण, सूत्र नं. 8.1.7 की वृत्ति में 'कळभ' शब्द और पिशल (304,379) द्वारा दिये गये उदाहरण, लेलु, लेलुसि) । अर्धमागधी में प्रयुक्त कीळ, खेळ, छळ, णळाड, तळाग, तळाव, ताळ, दोहळ, पीळ, फळिह, फाळिय, वेळु, सोळस, आदि शब्दों के लिए देखिए पिशल की शब्द-सूची ।
8. प्रारंभिक दन्त्य नकार को प्राथमिकता देनी चाहिए और अव्यय • न का नकार ही रखा जाना चाहिए (जैसी कि शुबिंग महोदय की पद्धति रही है) ।
9. कभी कभी मध्यवर्ती दन्त्य न मिले तो उसका सर्वत्र ण बनाना जरूरी नहीं समझा जाना चाहिए ।
10. रकार का लकार मिले तो सुरक्षित रखना चाहिए । __11. संयुक्त व्यंजनों में समीकरण के बदले स्वरभक्ति का पाठ मिले तो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जैसे-द्रव्य = दविय, नित्य = नितिय, तथ्य = सथिय, अग्नि = अगणि, उष्ण = उसिण ।
12. ङ और ञ् को सजातीय व्यंजनों के साथ संयुक्त रूप में यथावत् रखा जाना चाहिए (उन्हें अनुस्वार में सर्वत्र बदलने की पद्धति पर भार नहीं दिया जाना चाहिए) जैसी शुब्रिग महोदय की पद्धति है ।
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