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५. प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत की मुख्य लाक्षणिकताएँ
अर्धमागध देश की जो भाषा थी या जिस भाषा में आधे मागधी भाषा के लक्षण थे उसे अर्धमागधी भाषा की संज्ञा दी गयी है । इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए प्राकृत व्याकरण, प्राचीन पालि साहित्य, प्राचीन शिलालेखों, प्राचीन अर्धमागधी साहित्य, आगम साहित्य की हस्तप्रतों, चूर्णी आदि में उपलब्ध प्राचीन प्रयोगों के आधार से मूल अर्धमागधी की अपनी विशेषताएँ निश्चित की जा सकती हैं जो अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन अंशां (विषय-वस्तु, शैली एवं छन्द के आधार से निर्धारित) के सम्पादन में पथ-प्रदर्शक बन सकती हैं । अपनी अल्पज्ञ मति के अनुसार उन लाक्षणिकताओं को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है :
1. यकार से प्रारंभ होनेवाले अव्ययों में यदि य के बदले में अ मिले तो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।
2. मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का महाराष्ट्री प्राकृत की तरह प्रायः लोप नहीं किया जाना चाहिए । (स्वर प्रधान पाठ गेय होने के कारण मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति को पुष्टि मिली है इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता) ।
3. मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजनों के बदले में प्रायः ह ही अपनाया जाना चाहिए यह भी उचित नहीं है ।
4. मध्यवर्ती क या उसके बदले मे ग को और मूल ग को यथावत् रखने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए ।
5. मध्यवर्ती त को सर्वत्र त श्रुति मानकर उसका लोप नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि त श्रुति का लेखन में प्रचलन बहुत बादका है ।
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