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________________ .७८ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में/के.आर चन्द्र से कुछ तो बहुप्रचलित हैं और कुछ कभी कभी कहीं पर प्राचीनता के रूप में बच गयी हैं । अ. बहु-प्रचलित (1) सप्तमी एक वचन की विभक्ति-अंसि : उदाहरण-नयरंसि, लोगंसि, रायहाणिसि (2) हेत्वर्थक कृदन्त का प्रत्यय-इत्तए (3) चतुर्थी विभक्ति (पुं. अकारान्त ए. व. की) आए (4) संबंधक भूतकृदन्त प्रत्यय - इया, - इयाण,-इयाणं, -इत्ताणं (8.2.146) -च्चा प्रत्यय का सं. भू. कृ. के अन्य कृदन्तों के साथ उल्लेख नहीं हुआ है । हाँ त्व = १च के प्रसंग पर . अवश्य दिया गया है (8.2.15 सेोच्चा, भोच्चा, णच्चा) परंतु-च्चाणं का उल्लेख नहीं है । क्वचित् प्राप्त [i ] अकस्मा या अकस्मात् के प्रयोग, [ ii] त श्रुति के विषय में, [ili] मध्यवर्ती त और थ के बदले में क्रमशः द और घ के प्रयोग, [ iv ] तृ. ब. ब. की विभक्ति-भि, [v] सार्वनामिक सप्तमी एक वचन की विभक्ति-म्हि, [ vi] स्त्रीलिंगी एक वचन की विभक्तियाँ-य, –या और -ये [vii] वर्तमान कृदन्त का प्रत्यय-मीन और viii] भूतकाल का तृ. पु ए. व. का प्रत्यय -इ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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