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आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की अर्धमागधी भाषा के लिए अलग अलग सूत्र बनाने के लिए उनके पास काफी सामग्री थी । इसके अलावा प्रारंभिक न = न के लिए भी सविशेष कह सकते थे और ज्ञ, न्न, न्य = न्न के बारे में भी सूत्र दे सकते थे जैसा कि उन्होंने मागधी के लिए सूत्र (8.4 293) दिया है । ये सब प्राचीन प्रवृत्ति के अन्तर्गत आते हैं । उन सब का मूर्धन्य ण या पण होना बाद के काल की प्रवृत्ति है । आचार्य श्री हेमचन्द्र के ही व्याकरण-ग्रन्थ में विभिन्न स्थलों पर (चतुर्थ अध्याय के धात्वादेश) को छोड़कर) जो उदाहरण दिये हैं उनमें शब्द के प्रारंभ में नकार 8 बार और णकार एक बार यानि 8:1 के अनुपात में मिलता है अर्थात् प्रारंभिक नकार का प्रायः नकार ही मिलता है । उसी प्रकार ज्ञ, न्न, न्य का न्न अधिक बार और प्रण कम बार मिलता है ।
इसी प्रकार क-वर्ग एवं च-वर्ग के अनुनासिक व्यंजन स्ववर्ग के व्यंजनों के साथ प्रयुक्त हो सकते हैं ऐसा मी सूत्र बनाया जा. सकता था ।
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अपने व्याकरण के प्रथम सूत्र की वृत्ति में वे कहते हैं कि अनुनासिक संयुक्त रूप में आते ही हैं और पुनः 8.1.30 में ऐसा आदेश है कि संयुक्त रूप में आने पर उनका विकल्प से अनुस्वार हो जाता है । इस सूत्र के बावजूद भी उनके व्याकरण ग्रंथ में जितने भी प्रयोग हैं उन सब में अधिकतर ये अनुनासिक व्यंजन ही प्रयुक्त हैं न कि उनके बदले में अनुस्वार । . अमुक विशेषताओं का उल्लेख ही नहीं
अर्धमागधी की जिन जिन विशेषताओं का आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उल्लेख ही नहीं हुआ है. वे इस प्रकार हैं । इनमें
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