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फीकुं पडी गयुं छे, गति स्खलित अने विपरीत बनी छे, केसर अने कनकना वर्ण जेवी - कान्तिनी उपर श्यामता छवाई छे : हे निशाचर, तारा विरहे मुग्धा निशाचरी बनी गई छे. (८७)
__हे पथिक, तुं तारा कामने कारणे हृदयथी व्याकुळ छे. हुं लेख लखीने तने आपी शकती नथी. एटले स्नेहभावे तुं आ दोहा अने गाथा प्रियने कहेजेः (८८)
हे प्रिय, घणुंखरूं तो विरहाग्नि वडवानलमांथी उत्पन्न थयो हशे : एटले ज तो एना पर स्थूळ अश्रुबिंदुओ वरसतां होय छे तो पण ते ऊलटो वधु प्रज्वळे छे. (८९)
जो ए विशाळ नेत्र वाळी मुग्धा अश्रुधाराए सिंचाती न होत तो निश्चितपणे ते दीर्ध अने ऊना नि:श्वासोथी शोषाईने मरण पामी होत.' (९०)
पथिके का, 'हे चंद्रवदना, हवे तुं पाछी वळी जा. अथवा तो हे मृगनयना हजी पण तारे कांई कहेवरावq होय तो ते कहे'
हुं कहुं छु, पथिक, केम न कहुं ? पण एम थाय छे के स्नेह अने रति रहित जेणे मारी आवी दशा करी, जेणे आवी रीते मने विरहगीमां नाखी दीधी, जे अकृतार्थे धनने लोभे मने एकली छोडी मूकी, एने कहीने पण शुं ? मारो संदेशो लांबो छे पण तुं उतावळमां छे, तो हे पथिक, मारा प्रियने आ गाथा, वस्तु अने डोमिला तो कहेजे जः (९१-९२)
ए वेळा आपणो एवो गाढ संगम हतो के बच्चे हार पण रहेतो न हतो, ज्यारे अत्यारे तो आपणी वच्चे सागर, सरिता, गिरि, वृक्षो अने दुर्गोनो अंतराय आवी पड्यो छे. (९३).
केटलीक प्रियमां आसक्त विरहव्याकुळ मुग्धाओ एने झंखती एनो संग पामवा बावरी बने छे. स्वप्नमां तेओ प्रियना शरीरनो धन्य स्पर्श, एनुं आलिंगन, दर्शन, चुंबन, दंतक्षत अने सुरतरस पामे छे. हे पथिक, तुं ए निर्दयने कहेजे के ए ज्यारथी प्रवासे गयो छे, त्यारथी मने निद्रा ज आवती नथी तो पछी स्वप्नमां संगसुख माणवानी वात ज क्यां रही?(९४)
प्रियना वियोगने लीधे रातदिवस एना संगमना अभावना शोकमां मन झुरतुं रहे छे तेथी मारूं अंग अतिशय शोषाई गयुं छे अने हुं आंसु लूछ्या करूं छु. हे निर्दय मारा विशे हुं तने शुं कहुं ? तने स्वप्नमां लावीने भावपूर्वक हुँ मोहवश थईने जोउं छु. पण ए क्षण वीती जाय छे मारुं स्वामीरूपी मोडूं राच (विरहरूपी) तस्कर चोरी गयो. हे पथिक, कहे
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