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समो होते छते हुं आवुं भारे अपमान केम सहुं ? (७७)
विरहरूपी छोकरडाए एवो अणधार्यो प्रहार कर्यो छे के तेणे मारुं शरीर भांगी नाख्युं, पण हृदय पर ते प्रहार नथी करी शक्यो केम के त्यां उपस्थित रहेला तने तेणे जोयो. (७८)
विरहनी सामे मारुं सामर्थ्य नथी एटले हुं विलाप करती बेठी छं. गोवाळण तो मात्र रुदन करी शके, धणने धुमावीने पाठुं वाळवुं ए तो धणना स्वामीनुं काम. (७९) संदेशो एटलो लांबो छे के ते पूरेपूरो हुं कही शकती नथी. मात्र एटलुं प्रियने कहे के एक ज वलयमां हवे मारा बंने हाथ समाई जाय छे. (८०)
संदेशो विस्तारथी हुं कही शकती नथी. (पण तुं एटलुं कहेजे के) जे टचली आंगळीनी वीटी छे तेमां हवे मारुं बावडुं समाई जाय छे.' (८१)
त्यारे उतावळे जवा इच्छतो पथिक दोहा सांभळीने बोल्यो, हे चतुरा तारे हजी कांई वधु कहेवुं होई तो कही दे. रस्तो धणो दुर्गम छे अने हे मुग्धा, मारे जलदी पहोंचवुं छे. (८२) ए वचनो सांभळीने, शिकारीना बाणोथी त्रासेली हरिणीनी जेवी, कामदेवना शवींधायेली, आंखे आसुं वरसावती ए मुग्धाए, दीर्ध अने ऊनो निःश्वास मूकीने एक गाथा आ प्रमाणे कही: (८३)
'आ धृष्ट नेत्रो एक क्षण पण अटक्या विना अश्रुजल वहावतां लाजतां नथी. पण तेथी तो मारो विरहाग्नि खांडववननी जेम ऊलटो वधु ज्वलित थई रह्यो छे. (८४) आ गाथा पढीने उद्विग्न अने अतिशय दुःखी थयेली ए मृगनयनीए पथिकने कह्युं, 'जेणे रतिनी आशा अने सुखमां विघ्न नाख्युं छे तेवा ए निर्घृणने आ बे चोपाई तुं कहेजे : (८५)
तने संभारतां विषम समाधि-योग प्रगट्योः डाबाहाथमां रहेलुं आ 'कपाल' (१ माथु, (२) खोपरी) एक क्षण दूर थतुं नथी. 'सेज्जासन' (१. शय्यामाां बेसवुं, २ शय्यामां खावुं हुं एक क्षण पण छोडती नथी, खट्वांग (१ पलंगनो पायो, २ खट्वांग, योगीओ राखे छे ते उपकरण) पकड्युं छे. हे कापालिक, तारा विरहे मने कापालिकी - योगिनी करी मूकी छे. (८६)
ओढणुं सरी गयुं छे, शरीर रूक्ष थई गयुं छे, अलकलये वीखरायेली छे, मुख
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