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स्थानांग, नंदी....ग्रंथितंत्र एकक्षेत्र अवधिज्ञान में शरीर का एक चैतन्य-केन्द्र भी जागृत हो सकता है तथा दो, तीन, चार, पाँच आदि चैतन्य-केन्द्र भी एक साथ जागृत हो सकते हैं।
चैतन्य केन्द्र अनेक संस्थान वाले होते हैं । जैसे इन्द्रियों का संस्थान प्रतिनियत होता है, वैसे चैतन्य-केन्द्रों का संस्थान प्रतिनियत नहीं होता, किन्तु करणरूप में परिणत शरीर-प्रदेश अनेक संस्थान वाले होते हैं । कुछ संस्थानों के नाम-निर्देश मिलते हैं ।२४ जैसे-श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि। धवलाकारने आदि शब्द के द्वारा अन्य अनेक शुभ संस्थानों का निर्देश किया है ।२५ तन्त्रशास्त्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल शब्द की प्रकल्पना मिलती है । यहाँ कमल शब्दका उल्लेख नहीं है, किन्तु आदि शब्द के द्वारा उसका निर्देश स्वतः प्राप्त हो जाता है । आचार्य नेमिचन्द्रने गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिन्हों से उत्पन्न होनेवाला बतलाया है । टीकाकार ने आदि शब्द की व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश आदि शब्दों का निर्देश दिया हैं ।२७ जैन साहित्य में अष्ट-मंगल की मान्यता प्रचलित हैं ।“ अनुमान किया जा सकता है कि अवधिज्ञान के शरीरगत चिन्हों और अष्ट-मंगलों में कोई सामंजस्य का सूत्र रहा हो।
श्रीवत्स आदि शुभ संस्थान वाले चैतन्य केन्द्र मनुष्य और पशु की नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं । वीरसेन आचार्य का मत है कि शुभ संस्थानवाले चैतन्य-केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते । नाभि से नीचे होने वाले चैतन्यकेन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकारवाले होते हैं । आचार्य वीरसेन के अनुसार इस विषय का षट्खंडागम में सूत्र नहीं है, किन्तु यह विषय उन्हें गुरु-परम्परा से उपलब्ध है।
चैतन्य-केन्द्रों के संस्थानों में परिवर्तन भी हो सकता है । सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान मिट जाते हैं, नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व अवस्था में चले जाने पर नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान मिट जाते हैं और नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं ।
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