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पू. युबाचार्य महाप्रज्ञ
चैतन्य-केन्द्र का विषय साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त होती है । किन्तु उनके प्रदेशों या चैतन्य की सधनता सर्वत्र एक जैसी नहीं होती । शरीरके कुछ भागों में चैतन्य सघन होता है और कुछ भागों में विरल । अतीन्द्रियज्ञान, शक्ति-विकास और आनन्द की अनूभूति के लिए उन सघन क्षेत्रों की सक्रियता हमारे लिए बहुत अर्थपूर्ण है। इस दृष्टि से यह विषय वहुत मननीय है । १. गोरक्ष पद्धति २/७५-७६ गद' मेढ' च नाभिश्च हृत्पद्म तदूर्ध्वतः ।
घण्टिका लम्बिका स्थान नमध्ये च तमोबिलम् । कथितानि नवैतानि ध्यानस्थानानि योगिमिः ।
उपाधितत्त्व-मुक्तानि कृर्वन्त्यष्ट गुणोदयम् ।। २. प्रज्ञापना १५/१, वृत्तिपत्र ३०३
"केवली हि सर्वेरप्यात्मशरीरप्रदेशः सर्व जाना ति पश्यति च" ।
छद्मस्थस्तु अंगोपांगविशेष संस्कृतैरेवेन्द्रियद्वारैः जानाति पश्यति च” ॥ ३. भगवती ६/५ ४. भगवती ६/१४ ५. घट्ख डागम, पुस्तक १३, पृष्ठ २९६, धवला :
ओहिमाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्व जीवपदेसेसु अवकमेण ओक्सम गदेसु सरीरेगदेसेणेव बज्झहावगमाणुवत्तीदो ? ण, अण्णत्थ करणाभावेण करणसरुवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो । वही, पृ. २९६, धवला :खेत्तदो ताव अणेयमंठाणसंठिदा ॥५७॥
जहा कायाणमिंदियाण च पडिणिय दं संठाणं तहा ओहिणाणरस ण होदि, किन्तु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदर्जीवपदेसाणं करर्ण मूदसरीर पदेसा अणेग
संठाणसठिदा होति । ७. प्रज्ञापना ३३/३३ । ८. नन्दी सूत्र, १८, गा. २
गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. ३६३ :भवपच्चइगो ओही, देसोही होदि परमसम्वोही ।
गुणपच्चइगो णियमा, देसोही वि य गुणे होदि ॥ 3. Seminar on Jain Agama
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