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________________ जितेन्द्र बी. शह 21 आवश्यक नियुक्ति में नहीं पाए जाते हैं । प्राचीन दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित ऐसे दो भेद नहीं मिलते हैं ।" अश्रुतनिश्चित के नंदीसूत्र में औत्पातिकी, वैनयिकी, कर्मजा तथा पारिणामिकी इस प्रकार चार भेद किए गए हैं और वे भी स्थानांग में नहीं मिलते हैं । अतः यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि स्थानांगसूत्र की ज्ञान - चर्चा नंदीसूत्र से अधिक प्राचीन है - अनुयोगद्वार - सूत्र में ज्ञानचर्चा करते समय प्रारंभ में ज्ञान को चार प्रमाणों में विभाजित किया गया है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । प्रत्यक्ष प्रमाण के पहले पहल दो भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष करके इन्द्रिय प्रत्यक्ष में आभिनिबोधिक तथा नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में अवधि, मनः पर्यव तथा केवल ज्ञान का समावेश किया गया है तथा आगम प्रमाण में श्रुतज्ञान का समावेश किया गया है । इस प्रकार प्रथमबार अनुयोगद्वार में प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञानचर्चा का प्रयत्न किया गया है । इसमें स्पष्टतः नैयायिक प्रभाव पाया जाता है और स्थानांगसूत्र से अधिक विकसित भी है । १६ १७ आवश्यकसूत्र अंग-आगम जितना पुराना है । पं. श्री दलसुखभाई मालवणीया ने यह सिद्ध किया है कि आवश्यक का अध्ययन अंगों से भी पहले किया जाता था । उन्होंने आवश्यकसूत्र की नियुक्ति को अंगों के जितनी ही पुरानी मानी है । इस तरह से यह तो निश्चित होता है कि आवश्यक की नियुक्ति प्राचीन है। ज्ञान विषयक नियुक्ति में आ. भद्रबाहु ने मंगल के रूप में केवलज्ञान की ही चर्चा की है । बृहत् - कल्पभाष्य में मिलने वाली नियुक्ति -गाथाओं में भी ज्ञान की चर्चा प्राप्त होती है ।" बृहत्कल्पकी नियुक्ति-गाथाओं में पाँच प्रकार के ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में विभाजित किया गया है। आवश्यक-निर्युक्ति के अनुसार ज्ञान का विवेचन निम्न रूप से प्राप्त होता है: (१) आमिनिशेधिक (२) श्रुत अवग्रह ईंहा अत्राय Jain Education International धारणा T अक्षर For Private & Personal Use Only अनक्षर www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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