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________________ 22 स्थानांग में ज्ञानचर्चा अक्षर : संज्ञी, सादि, सपर्यवसित, गमिक, सम्यक् , अंगप्रविष्ट । अनक्षर : असंज्ञी, अनादि, अपर्यवसित, अगमिक, मिथ्या, अंगबाह्य (३) अवधि (४) मन:पर्यव (५) केवल भवप्रत्यय क्षायोपशमिक ऋजुमति विपुलमति आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान के दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष किए गये हैं जो स्थानांग में भी पाए जाते हैं । अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा का जो स्वरूप नियुक्ति में है वही स्थानांग में भी । विशेषता केवल यह है कि नियुक्ति में अवग्रह के दो भेद अर्थावग्रह तथा व्यंजनावग्रह का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं हैं तथापि आभिनिबोधिक ज्ञान के २८ ही भेद प्राप्त होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्याय के रूप में मति के अतिरिक्त संज्ञा, प्रज्ञा, स्मृति आदि शब्दों की वृद्धि तो पाई जाती है किन्तु श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित जैसे भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है ।२० श्रुतज्ञान के १४ भेदों का वर्णन किया है जो स्थानांगसूत्र में नहीं है, शायद स्थानांग की ज्ञान-चर्चा द्वितीय स्थानक के अन्तर्गत होने से श्रुतज्ञान के दो ही भेद ईष्ट हो जैसा कि श्रुतनिश्रित के दो भेद अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह करके ही छोड़ दिया गया है । - श्रुतज्ञान के भेदों की भी दो परंपराएँ प्राप्त होती हैं । श्रुतज्ञान के अक्षर, अनक्षरादि १४ भेदों की प्रथम परंपरा तथा अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट रूप केवल दो ही भेदों की दूसरी परंपरा । प्रथम परम्परा आवश्यक नियुक्ति और नदीसूत्र में और द्वितीय परंपरा स्थानांग सूत्र और तत्त्वार्थसूत्र में है । उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान को प्रारंभ में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में विभाजित करके उसमें पाँच प्रकार के ज्ञान का समावेष करने का प्रयत्न नियुक्तिकार ने किया है और अन्य भेद-प्रभेदों की तुलना करने से यह सिद्ध होता है कि स्थानांग की ज्ञान-चर्चा का आधार नियुक्ति की गाथाएँ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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