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स्थानांग में ज्ञानचर्चा
ज्ञान
प्रत्यक्ष
पराक्ष
वल
नोकेवल आभिनिबोधिक
श्रत
भवस्थ
सिद्धस्थ
श्रुतनिश्रित
अश्रुतनिश्रित
अवधि
मन:पर्यव ।
अर्थावग्रह
-
व्यंजनावग्रह
भवप्रत्यय क्षायोपशमिक
अंगप्रविष्ट
अंगबाह्य
ऋजुमति
विपुलमति
आवश्यक
आवश्यक-व्यतिरेक
कालिक उत्कालिक इस से यह स्पष्ट है कि प्रथम अवस्था में ज्ञान के दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष किए गए हैं । प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान का तथा परोक्ष में आभिनिबोधिक तथा श्रुतज्ञान का समावेश किया गया है । इन्द्रियजनित ज्ञान को परोक्ष ही माना गया है। नंदीसूत्रकार ने इन्द्रियजनित ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों में समाविष्ट किया है जो स्थानांगसूत्र की ज्ञान-चर्चा से अधिक विकसित है। नंदीसूत्रकी ज्ञानचर्चा चतुर्थ भूमिका में आती है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए नंदीसूत्र की दी गयी तालिका देखिए।
स्थानांगसूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो भेद श्रुत-निश्रित और अश्रुतनित्रित किए गए हैं, जो नंदीसूत्र के अनुकूल होने पर भी तत्त्वार्थसूत्र तथा
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