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________________ जितेन्द्र बी. शाह तत्पश्चात् उक्त दो भेदों में ही मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान को समाविष्ट किया गया है। . (३) नैयायिक-सम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं आगम-इस प्रकार चार प्रमाणों में पाँचों ज्ञान का समावेश । (४) इन्द्रिय-जनित ज्ञान का प्रत्यक्ष ज्ञान एवं परोक्ष ज्ञान दोनों में समावेश करके अन्यदर्शनानुकूल इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान का जैन दर्शन के सिद्धान्त के साथ समन्वय करने का प्रयास किया गया है। भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र तथा कर्मविषयक ग्रन्थों में प्रथम भूमिका के रूप में ज्ञान की चर्चा प्राप्त होती है । आवश्यक-नियुक्ति और स्थानांग-सूत्र में की गई ज्ञान-चर्चा द्वितीय भूमिका के रूपमें है। . अनुयोगद्वार-सूत्र में ज्ञान विश्लेषण की पद्धति तृतीय भूमिका में समाविष्ट होती है। नंदीसूत्र में प्राप्त ज्ञान-चर्चा चतुर्थ भूमिका के अन्तर्गत आती है । स्थानांगसूत्र में की गयी ज्ञानचर्चा प्रथम भूमिका का विकास है । प्रथम भूमिका की ज्ञानचर्चा भगवतीसूत्र में प्राप्त होती है" । तदनुसार : ज्ञान मति या आभिनिबोधिक श्रत अवधि मनःपर्यव केवल अवग्रह = १. व्यंजनावग्रह और २. अर्थावग्रह इसमें ज्ञान के केवल पाँच ही भेद किए गए हैं जो जैन सिद्धान्त को मान्य हैं । इसी प्रकार की भेद-चर्चा उत्तराध्ययन सूत्र में भी प्राप्त होती है । ___स्थानांगसूत्र में ज्ञान को पाँच भेदों में विभाजित न करके प्रथम दो विभाग प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभक्त किया गया है। स्थानांगसूत्र में प्राप्त ज्ञान-चर्चा द्वितीय भूमिका की है । इसी प्रकार की चर्चा तत्त्वार्थ-सूत्र में भी उपलब्ध होती है । दोनों ही लगभग समान प्रकार की हैं। स्थानांगसूत्र के अनुसार ज्ञान का विवेचन निम्न प्रकार से है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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