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स्थानांग में ज्ञानचर्चा
- जितेन्द्र बी. शाह, वाराणसी
भारतीय दर्शनकी वैदिक एवं श्रमण परंपराओं में ज्ञान का विशेष महत्त्व है । प्रत्येक भारतीय परंपरा में जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण माना गया है । उस परम लक्ष्य की प्राप्ति में ज्ञानको ही साधन मानने पर भी ज्ञान के स्वरूप, संख्या आदि में विप्रतिपत्ति है। कुछ दार्शनिक लोग ज्ञान को गुण, कुछ कर्म और कुछ द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं । ज्ञान को गुण मानने वाले दार्शनिकों के दो भेद हैं। प्रथम मत के अनुसार ज्ञान आत्मा का आगन्तुक लक्षण है । दूसरे मत के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक लक्षण है । जैन दर्शन में ज्ञान को आत्मा का अनिवार्य गुण माना गया है। जीव और अजीव की भेदरेखा ज्ञान पर आधारित है । ज्ञान के बिना जीव अजीव है' । ज्ञान आत्माका लक्षण होने से तथा प्रमुख गुण होने के कारण जैन सिद्धान्त में ज्ञान की चर्चा प्रमाण से अलग स्वतंत्र रूप में ही की गई है । जब कि अन्य दर्शनों में ज्ञान की चर्चा प्रमाण की चर्चा के अन्तर्गत ही की जाती है ।
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आभिनिबोध अथवा मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवलज्ञान रूप-ज्ञान के इन पाँच भेदों का विवेचन प्राचीन आगमों में किया गया है । अनेक ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर उक्त ज्ञान विषयक चर्चा भ० महावीर से भी प्राचीन सिद्ध की गई हैं । प्राप्त प्राचीन आगम साहित्य के आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन करने पर ज्ञान विषयक चर्चा में एक प्रकार का विकास प्रतीत होता है ।
कर्म - विषयक शास्त्रों में ज्ञानावरणीय कर्म के प्रसंग में ज्ञान की चर्चा उपलब्ध होती हैं । भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययन, आवश्यक - नियुक्ति, स्थानांग, नंदीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र े, प्रज्ञापनासूत्र " आदि ग्रन्थों में ज्ञान -चर्चा-संबंधी विशेप सामग्री प्राप्त होती है | आगमों में ज्ञान चर्चा के विकास की चार भूमिकाएँ परिलक्षित होती हैं ।
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(१) विशुद्ध ज्ञान - चर्चा, जिसमें ज्ञान को केवल पाँच विभागों में विभाजित किया है ।
(२) प्रारंभ में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष नामक दो भेद किए गए हैं +
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