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आचार्य तुलसी, लाडनू
शरीर-प्रेक्षा की दूसरी पद्धति है-संधि-दर्शन । शरीर की संधियों (जोडों) का स्वरूपदर्शन कर उसके यथार्थरूप को समझना। शरीर अस्थियों का ढांचा मात्र है, उसे देखकर उससे विरक्त होना । शरीर में एक सौ अस्सी संधियाँ मानी जाती हैं । चौदह महासंधियाँ है-तीन दाएँ हाथ की संघियाँ -कन्धा, कुहनी पहुचा । तीन बाएं हाथकी संधियाँ । तीन दाएं पैर की संधियाँ-कमर, घुटना, गुल्फ । तीन बाए पैर की संधियाँ, -एक गर्दन की धि, एक कमर की संधि । इन संधियों के दर्शन से शरीर की वास्तविकता ज्ञात होती है। उसकी मुर्छा का परिहार होता है - संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं ।'
शरीर प्रेक्षाकी तीसरी पद्धति है--शरीर की अशुचिता को देखना । एक मिट्टीका घड़ा अशुचि से भरा है, वह अशुचि उभर कर बाहर आ रही है। वह भीतर से अपवित्र है और बाहर से भी अपवित्र हो रहा है ।
यह शरीर-घट भीतर से अशौच है। इसके निरंतर झरते हुए स्रोतों से बाहरी भाग भी अशौच हो जाता है ।
यहाँ रुधिर है, यहाँ मांस है, यहाँ भेद है, यहाँ अस्थि है, यहाँ मज्जा है, यहाँ शुक्र है । साधक गहराई में पैठकर इन्हें देखता है ।
देहान्तर के अन्तरका अर्थ है- विवर । साधक अन्तरोंको देखता है। वह पेट के अन्तर (नाभि), कान के अन्तर (छेद), दाए हाथ
और पार्श्व के अन्तर तथा बाए हाथ और पाव के अन्तर, रोम कूपों तथा अन्य अन्तरोंको देखता है। इस अन्तर-दर्शन और विवरदर्शन से उस शरीर का वास्तविक रूप ज्ञात हो जाता है। उसकी कामना शान्त हो जाती है। १. आयारो २। १२७
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