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आचारांग में साधना के सूत्र चूर्णिकारने इस क्षणान्वेषणको चार क्षणों में विभक्त किया है।' टीकाकारने प्रस्तुत सूत्र की जो व्याख्या की है, वह शरीर-विपश्यनावा एक महत्त्वपूर्ण निर्देश है।
भगवान् महावीर ऊलोक, अधोलोक और मध्यलोक में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे ।
इससे ध्यान की तीन पद्धतियाँ फलित होती हैं(१) आकाश-दर्शन, (२) तिर्यर-भित्ति-दर्शन और (३) भूगर्भ-दर्शन ।
आकाश-दर्शन के समय भगवान् ऊर्ध्यलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे । तिर्यग-भित्ति-दर्शन के समय वे मध्यलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे । भूगर्भ-दर्शन के समय वे अधोलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे।
१. आचारांगचूणि', पृ. १६५-६६ "इमस्स ओगलियस्स विगहो-सरीरं, ता तेयाकम्माणि तदंतग्गताणि, ण वेउब्धिय आराहगम्म कलहाति, वुग्गहस्स वा अयं खणेति, तत्थ खेत्तकालरिजुकम्मखवणा चत्तारि खणा इति णिवेसकालो अम्बिसणकाली अण्णेसी, जं भणितं गवेसति ।"
२. आचारांगवृत्ति, पत्र १८५-"जे इमस्स" इत्यादि 'य' इत्युपलब्धतत्त्वः 'अस्य अध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्टप्रकारं कर्म तद्वेतरशरीरविशिष्टं बाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रहः-औदारिकं शरीरं तस्य 'अयं' वार्तमानिकक्षण एवम्भूतः सुख दुःखान्यतररूपश्च गत एवम्भूतश्च भावीत्येवं यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी सदा अप्रमत्तः स्यादिति ।" ३. आयारो ९।४।१४-अवि झाति से महावीरे आसणत्थे अकुक कुए झण।
उडूढमहे तिरिय च, पेहमाणे समाहिमपडिगणे || "आसणे अकुकुते ज्झाण' ज्झाति धम्म सुक्कं वा, आसण उक्कुडुओ वा वीरासणेण वा । अकुकुओ णाम निच्चलो, दवतो सरीरेण निच्चलो भावओ अकुकुओ पसत्थज्झाणोवगतो झियाति, कि झियाति ? उड्ढे अहे य तिरियं च सव्वलोए झायति समित उड्ढलोर जे भावा एव अहे वि तिरिए वि, जेहिं वा कम्मादाणेहि उड्ढ' गंमति एव हे तिरियं च, अहे संसार संसारहेउच कम्मविपागं च झाति, एवं मोवखं मोक्ख हेउ' च झात, मोक्खसुहं च ज्झायति, पेच्छमाणो आयसमाहि परसमाहि च अहवा नाणादिसमाहिं।"
-आचारांगचूणि", पृष्ठ ३२४
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