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________________ २०८ डॉ. पुष्पलता जैन (९.२२.२ ) आदि ग्रंथों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख मिलता है : १. प्रायश्चित्त के समय आचार्य को उपकरण आदि देना ताकि प्रायश्चित्त थोडा मिले-आकंपयित्ता । २. अनुमान लगाकर अथवा दुर्बलता आदि का बहाना कर प्रायश्चित्त लेना-अणुमाणइत्ता । ३. दूसरों के द्वारा ज्ञात दोषों को प्रकट कर देना और अज्ञात दोषो को छिपा लेना-दिट्ठ। राजवार्तिक में इसी को मायाचार कहा है । ४. केवल स्थूल दोषों को कहना-बायर । ५. सूक्ष्म दोषों को कहना- सुहुम । ६. उसी दोष में निमग्न साधु से आलोचना करना-तस्सेवी। ७. एकांत स्थान में धीरे-धीरे आलोचना करना-छन्न ! । ८. प्रशंसा अथवा पापभीरूता को प्रदर्शित करने के उदेश्य से भीड के समक्ष आलोचना करनाबहुजण । २. अजानकार के समक्ष आलोचना करना ( अव्वत्त ) और १०. उच्च स्वर से कहना-सदाउलय । अंतिम चार दोषों के स्थान पर तत्त्वार्थराजवार्तिक में निम्नलिखित चार दोषों की गणना की गयी है-१. प्रायश्चित्त जानकर आलोचना करना, २. कोलाहल में आलोचना करना, ३, गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्यित्त की आगम विहितता की जानकारी करना. ४. अपने दोष का संवरण करना । इन दोषों से मुक्त होकर निष्कपट वृत्ति से अबोध बालक की तरह सरलतापूर्वक दोष निवेदन करने में इस प्रकार के दोषों से साधक मुक्त हो जाता है। ग्रंथों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि साधु और आर्यिका के आलोचना प्रकार में आचार्यों ने कुछ अंतर रखा है । उदाहरण के तौर पर साधु की आलोचना तो एकांत में आलोचक और आचार्य इन दो की उपस्थिति में हो जाती है पर आर्यिका द्वारा आलोचना सार्वजनिक स्थान में तीन व्यक्तियों की उपस्थिति में ही होती है । प्रशस्त भावों में केन्द्रित होने के लिए आत्मालोचन कदाचित् सर्वोत्तम साधन माना जा सकता है क्योंकि साधक उसके माध्यम से आत्मस्थ हो जाता है । आचार्य अकलंक ने आलोचना की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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