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________________ प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि २०७ दर्शन, चारित्र, क्षांति, दांति, निष्कपटता और अपश्चात्तापता गुणों से आभूषित हो। इसी तरह आलोचना ऐसे साधुओं के समक्ष की जाती है जो बहुश्रुत हों, आचार्य या उपाध्याय हों तथा आठ गुणों से संयुक्त हों-आचारवान् , आधारवान् ( अतिचारों को समझने वाला ), व्यवहारवान् , अपव्रीडकर (आलोचक साधु की शर्म को दूर करनेवाला ), प्रकुर्वक ( अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ ), अपरिस्रावी ( आलोचक के दोषों को प्रकट न करनेवाला ), निर्णायक ( असमर्थ साधुको क्रमिक प्रायश्चित्त देनेवाला ) और अपायदर्शी ( परलोक आदि का भय दिखानेवाला ।" __आलोचना करनेवाला साधु यदि यथार्थ साधुत्व से दूर होगा, मायावी होग. तो वह आलोचना इन आठ कारणों से करेगा-१. अपमान अथवा निन्दा से बचने के लिए, २. तुच्छ जाति के देवों में उत्पन्न होने से बचने के लिए, ३. निम्न मानव कुल में उत्पन्न होने से बचने के लिए, ४. विराधक समझे जाने का भय, ५. आराधक होने की आकांक्षा, ६. आराधक न होने का भय, ७. आराधक होने का मायाचार और ८. मायावी समझे जाने का भय । इसी प्रकार आगमों में ऐसे भी कारणों का उल्लेख आता है जिसके कारण मायावी आलोचना-प्रतिक्रमण नहीं करते : १. अपराध करने पर पश्चात्ताप की क्या आवश्यकता, २. अपराध से निवृत्त हुए बिना आलोचना की क्या उपयोगिता, ३. अपराध की पुनः प्रवृत्ति, ४. अपयश ( चतुर्दि शाओं में व्याप्त ), ५. अपकीर्ति (क्षेत्रीय बदनामी) ६. अपनय ( सत्कार न होना ), ७. कीर्ति पर कलंक का भय और ८. यश कलंकित होने का भय । मायावी साधक इन कारणों से पश्चात्ताप नहीं करता । वह मन ही मन पश्चात्ताप रूपी आग में जलता रहता है, चारित्रिक पतन से अपमानित होता है और मरकर दुर्गति में जाता है ।१२ ___आलोचना निर्दोष होनी चाहिए। उसमें किसी भी तरह का छलकपट न हो । भगवतीआराधना (२५.७ ) ठाणंग ( १०.७३३), तत्त्वार्थराजवातिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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