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________________ प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि २०९ है-" लज्जा और परतिरस्कार आदि के कारण दोषों का निवेदन करके भी यदि उनका शोधन नहीं किया जाता है तो अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब न रखनेवाले कर्जदार की तरह दुःख का पात्र होना पडता है । बड़ी भारी दुष्कर तपस्यायें भी आलोचना के बिना उसी तरह इष्टफल नहीं दे सकती जिस प्रकार विरेचन से शरीर की मलशुद्धि किये बिना खाई गई औषधि । आलोचन कर के भी यदि गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का अनुष्ठान नहीं किया जाता है तो वह बिना संवारे धान्य की तरह महाफलदायक नहीं हो सकता।४ • . प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण का तात्पर्य है वापिस लौटना । अर्थात् अशुभ योग से शुभयोग में, मिथ्या मे दुष्कृतम् ' मानकर प्रवृत्त हो जाना, आत्मगुण में लौट जाना आवश्यक नियुक्ति (१२३३- १२४४) तथा आवश्यक चूर्णि में प्रतिक्रमण के निम्न पर्याय सोदाहरण मिलते हैं-प्रतिक्रमण, परिहरण, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहीं और शुद्धि । इनसे प्रतिक्रमण के भिन्न-भिन्न आयामों पर प्रकाश पडता है । दोषों के पीछे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच विशेष कारण होते हैं। इनसे मुक्त होने के लिए साधक अपने दोषों का प्रतिकार करता है। क्षायोपशमिक भावों से औदयिक भाव में जाना और फिर औदयिक से क्षायोपशमिक में वापिस आ जाना यही प्रतिक्रमण है। इसलिए विषय के भेद से प्रतिक्रमण पांच प्रकार का माना जाता है आस्रवद्वार प्रतिक्रमण, मिथ्यात्व प्रतिक्रमण, कषाय प्रतियोग प्रतिक्रमण, भावप्रतिक्रमण, अविरति और प्रमाद का समावेश आस्रवद्वार में हो जाता है । प्रायश्यित्त और प्रतिक्रमण में अंतर यह है कि प्रायश्चित्त आचार्य के समक्ष लिया जाता है पर प्रतिक्रमण में आचार्य की आवश्यकता नहीं होती है । उसे साधक स्वयं प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल कर सकता है । पडावश्यकों में उसे स्थान देकर आचार्या ने उसकी महत्ता को प्रदर्शित किया हैं। इसमें साधक भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करता है, वर्तमानकालमें लगने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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