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प्रज्ञा ठाकर ऐसे ज्ञान के स्रोतरूप उ.सू. में आत्मा-परमात्मा, जीव, काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, मृत्यु, श्रमण, भिक्षु आदि अनेक विषयों की अत्यंत गहराई से चर्चा की गई है।
धम्मपद बौद्ध आगम है और सुत्तपिटक के खुदकनिकाय नामक अंतिम निकाय के पन्द्रह ग्रन्थों में उसका द्वितीय स्थान है । बौद्धागमों में सर्वाधिक लोकप्रियता उसे प्राप्त होने के कारण ही प्रायः उसे बौद्धों की गीता भी कहा गया है।
चीनी तुर्किस्तान में खोरान के नज़दीक के क्षेत्र से एक खण्डित हस्त-लिखित पुस्तक प्राप्त हुई है । यह खरोष्टि लिपी में है। इस ग्रंथ के अध्ययन के बाद कुछ विद्वानों का मत है कि वह ईसा के २६९ वें वर्ष में लिखा गया होगा। इसके उपरांत चीनी भाषा में धम्मपद के तीन भिन्न भिन्न संस्करण प्राप्त होते है । अतः कहा जा सकता है कि पालि भाषा का धम्मपद अति प्राचीन है ।
धम्मपद की इन धार्मिक गाथाओं में भगवान तथागत के अनुयायी बौद्ध श्रमणों की गाथाएँ ही नहीं अपितु अन्य पंथोपपंथ के श्रमण व ब्राह्मणों द्वारा कही गई गाथाओं का भी समावेश है । इस से फलित होता है कि उस युग में पंथद्वेष नहीं था और सुविचारों का आदानप्रदान सुचारुरूप से चलता रहता था ।
उ.सू. व धम्मपद में अध्यात्म, धर्म, नीति, कर्तव्य, साधना, समभाव, वीतराग आदि विषयों के निरूपण में भाषा की महत्ता, प्रौढता व गांभीर्य का कहीं कहीं तो अक्षरशः साम्य दिखता है ।
उ.सू. और धम्मपद में प्राप्त ऐसी कुछ समान सूक्तियों पर हम दृष्टिपात करेंगे।
सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं ।
पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा ॥ –धम्मपद-२००-४ (अकिञ्चन ऐसे हम यहीं अच्छी तरह सुखरूप जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जिस प्रकार देव आभास्वर हैं, उसी प्रकार हम भी प्रीति-भक्षी होंगे। )
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