SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययनसूत्र तथा धम्मपद इसी प्रकार के निस्पृहत्व की कल्पना महाभारत की अनुगीता के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में (१२-२६८-८) जनक-ब्राह्मणसंवाद में भी प्राप्त होती है । जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे ।। एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ। -उ.स्. ९-३४ दशलक्ष योद्धाओं पर युद्ध में विजय प्राप्त करने से अपने आप पर विजय प्राप्त करना उत्तम जयश्री है । यो सहस्सं सहस्सेन सङ्गामे मानुसे जिने । एक च जेय्यमत्तानं स वे सङ्गाममुत्तमो ॥ -धम्मपद-१०३।४ (संग्राम में सहस्र के सहस्त्र (दश लक्ष) व्यक्तियों को जोतने से तो एक आत्मा को जीतनेवाला संग्रामे उत्तम है ।) अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण बज्झओ। अप्पाणमेवमप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥ उ.-सू. ९-३५ (स्वयं से युद्ध कर, बाहरी शत्रु से लडने से क्या ? अपने आप पर स्वयं विजय प्राप्त करनेवाला मनुष्य ही सुख पाता है ।) पञ्चिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोह च । दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ उ.सू. ९-३६ (पञ्चेन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और दुर्जय 'स्व' अर्थात् अपने आप को भी आत्मा की विजय द्वारा ही जीता जा सकता है।) अत्ता हवे जितं सेय्यो न चायं इतरा पजा। अत्तदन्तस्स पोसस्स निच्चं संयतचारिनो ॥ धम्मपद-१०४-५ नेव देव न गन्धब्बो न मारो सह ब्रह्मना । जितं अपजितं कयिरा तथारूपस्स जन्तुनो ॥ धम्मपद-१०५-६ (इन अन्य प्रजाओं को जीतने के बजाय अपने आपको जीतना ही श्रेयकर है | आत्मदमन करनेवाले तथा सदा संयम से चलनेवाले जन्तु को ब्रह्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy