________________
परु
सत्तहत्तरिमो संधि तं वयणु सुणेवि गंडीव-धरु मं भीहि जुहिट्ठिल भणइ णरु किं करइ कण्णु किं कुरुव-वलु वंदि-ग्गहे गो-गहे दिछ वलु एहु भग्गु वि कण्णहो खुडिउ सिरु । महु एक्कु-वि एक्कहो ण थिउ थिरु जइयहुं ओवडिउ जयद्दहहो तइयहु-मि ल्हसिउ एक्कहो णरहो एवहि-मि णराहिव सो जे हउं किं एक्कं फोडमि वूह-सउ
घत्ता कइकेयणु पहु जयकारेवि रहे चडिउ चाउ विप्फारेवि। गिरि-सिहरे पवड्डिय-मलहरु थिरु स-धणु णाई णव-जलहरु ।।
[१६] जयसिरि-वहु-गहणुक्कंठुलहो वयणुग्णय वाय जुहिट्ठिलहो तुहुं अज्जुण कण्णहो हउं किवहो पवणंगउ कुरुव-णराहिवहो धट्ठज्जुणु कियवम्महो भिडिउ अवरहो अवरो-वि समावडिउ तो कहइ सल्लु रवि-णंदणहो एहु दीसइ चिंधु जणद्दणहो कइकेयणु एउ धणंजयहो लइ देहि दाणु सव्वहो जयहो रहु पेक्खु पेक्खु कह चक्कमइ णं मंदरु सायरे परिभमइ जइ णिहउ किरीडि कण्ह-सहिउ __ तो तुहुँ जे राउ मइं परिगहिउ दुणिमित्तई णवर ण रहु चलइ णित्तेय तुरय मुत्ता(?) वलइ
घत्ता संगामु भयंकरु होसइ सोणिय-समुदु उढेसइ। धय वायसु चंचु भरेसइ सहुं सुरेसहिं सइंभु णिएसइ ।।
इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए
सत्तहत्तरिमो सग्गो॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org