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चालीसमो संधि
एवड्डु कोउ जइ लइउ पई तो दोमइ-देहाणज्जुणेण जइयहुं जे महाहउ आढविउ अट्ठारह दिवस णिराउहेण
तो पहरु पहरु मुए चक्कु सई णारायणु पभणिउ अज्जुणेण तइयतुं जे देव तुहुं विण्णविउ जोएवउ रण-मुहे अणुरुहेण
धत्ता
एस चवंतएण करे धरेवि सउरि परिवत्तियउ । धीरउ होहि छुडु कहिं जाइ देव महु खत्तियउ ॥
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तो एम भणेवि वद्धामरिसु रण-भर-धुर-धोरिउ दुद्धरिसु . उत्थरिउ सरेहिं गंडीव-धर णं धारासारेहि अवुहरु घणु वहइ अलाय-रहग-छवि संघाणु ण दीसइ मोक्खु ण-वि णिसुणिज्जइ जलयर-घोसु पर जले थले णहै दिसि-वहे भरिय सर सारोहे अणारोहे वि दुरए सुण्णासणे सासवारे तुरए रहे रहिए रहौंग-धुरग्गे धए सिरे उरे करे चरणे वम्मे कवए गंगेउ ण दीसइ ण-वि य रहु । ण दिवायरुण-वि महि ण-वि य णहु णर-सर-वियणाउरु भग्ग-मणु _अप्पंपरिहुवइ वइरि-गणु
धत्ता कहिं संतण-तणउ कहिं कुरुवइ कहिं कुरु-साहणु । कुद्ध उ जाहं रणे णरु सेय-तुर गम-वाहणु ॥
[१२] पप्फुल्लिय-जंपण-कंजरण परिपूरिउ संखु धपंजएण उप्पण्णु कोहु दुज्जोहणहो रक्स्वहो गंगेउ पत्थु हणहो 'धाइउ दूसासणु सल्लु वलु सउवलु विहवल्लु अपमेय-वलु भूरीसउ गुरु-सुउ दोणु किउ एक्कल्लउ अज्जुणु वहु-वरिउ
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