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सत्ताबण्णमो संधि जो तुम्हहं माण-भंगु करइ चुक्कइ आयरिउ गुरुत्तणेण किउ बंभणु कियवम्मउ सयणु मारेवउ मदाहिवइ पई
तं मारमि जइ-वि कण्हु धरइ गुरु-गंदणु गुरु-पुत्तत्तणेण तहो मरणु ण इच्छइ महुमहणु वासरे चउत्थे रवि-तणउ मई
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घत्ता
जइ कल्लए राय सीसु ण खुडमि जयहहहो । तो उप्परि झंप देमि वलंतहो हुयवहहो ॥
सिरु तोडमि परए जयदहहो पुरे पइसइ जइ-वि पियामहहो जा सामि-मित्त-गुरु-दोहाई जा इह-पर-लोय-विरोहाहं जा-रिसि-गो-वंभण-घायणहं जा जीव-दुक्ख-उपायणहं जो माय-वप्प-आकोसणहं जा पंच-महावय-णासणहं जा पावहं दुक्किय-गाराहं जा णिय धणु दे त-णिवाराहं जा पसु-पंचुवर-भक्खणहं जा मंस-सुरा-महु-चक्खणहं जा पर-धण-पर-तिय-हिंसणहं जा देव-भोग-विद्धसणहं जा कित्तण-पडिमा-भंजणहं जा मिट्ठ-मक्ख-पविहंजणहं
घत्ता सा महु गइ होउ जइ णं जयद्दहु णिवमि । अत्यंतए सूरे कल्लए जम-पुरे पटवमि ॥ ९
[१०] जं पत्थे घोर पइज्ज किय तं रण-दिक्खहं सामंत थिय लहु पंचयण्णु दामोयरेण आऊरिउ देवयत्तु वरेण लल्लक्क-सद्द एक्कहिं मिलिउ णं जगु गिलेवि जमु किलिगिलिउ किउ कलयलु हय पडु-पडह-दडि णं महिहर-मत्थए पडिय तडि ४
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