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सत्तरमो संधि
[१२] वडिय-मच्छरेहिं दुकम्म-रउवरेहिं ।
पुणु पंचंगु मंतु आढविउ कउरवेहिं ॥१ दुजोहणु पभणइ ताय ताय अणुरत्त-पयई ते पंडु जाय रज्जु वि आयहु जे अणुक्कमेण मई किज्जइ काई अ-विक्कमेण । तो संतण-णंदण-णंदणेण वोल्लिज्जइ सप्पिसुणत्तणेण सो धम्मपुत्तु सयमेव धम्मु जसु तणउं अमाणुस-चरिउ कम्मु सुर-गुरु ण-वि पुज्जइ मंतणेण रहु-णंदणु णउ वीरत्तणेण ण पयावइ पय परिपालणेण ण दिवायरु पिहिवि णिहालणेण ण महण्णउ गंभीरत्तणेण ण गिरिंदु मेरु धीरत्तणेण गंगेउ दोणु किउ विउरु जासु महिमंडलु अवसे होइ तासु
घत्ता कुरुवइ हसिउ कोस-बल-गब्वें णिशणत्ते परिपूरिव-दव्वें । आसत्थामु जेत्थु तहिं किव-गुरु मई जे सयं भुजेवउ गयउरु ॥१०
इय रिडणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुव-कए सप्तदसमो संधि संमत्तो ॥ १७ ॥
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