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अंग जलना-'महु झत्ति पलिप्पइ अंगउ' (२३-१) । 'संकट में वन्धुगण पीठ नहीं दिखाते-'अवसरे पुछि दिति' वंधव (२६-१)। 'ब्राह्मण भोजनप्रिय होते हैं । 'जिह वंभणु तिह भोयणु महइ (३०-९)।
कुढे लग्गहु स्वयंभू की शब्दावली में तद्भव शब्दावली प्रमुख है । संस्कृत के रूपों का अपभ्रंश कवि अर्द्धतत्सम या तद्भव रूप में ही प्रयोग करते हैं । शब्द का रूप तत्सम होने पर भी उसमें अपभ्रश की विभक्ति का प्रयोग करके तद्भव रूप ही प्रयुक्त होगा- यथा समागमु, आगमे, गिरि-कंदरु (१४-१६), । स्वयंभू की शैली में प्रसाद गुण है । कहीं कहीं अथ समझने में कठिनाई होती है, अन्यथा कवि की रचना में वैसा ही माधुर्य और सहज प्रयोग मिलता है जैसा संस्कृत काव्यों में वाल्मीकि रामायण में ।
स्वयंभू अलंकारों का प्रयोग करते हैं किन्तु उनका अलंकारप्रयोग काव्य की शोभा को बढ़ानेवाला है- चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग कवि ने नहीं किया है : वीप्सा का प्रयोग अपम्रश कवियों की एक अद्भुत विशेषता हैयथा-१५-३, १५-१०, १६-३, १८-२ इत्यादि ।
उत्प्रेक्षा स्वयंभू का दूसरा प्रिय अलंकार है, 'ण" (मानो), 'पाइ' का प्रयोग करके अनेक स्थलों पर उत्प्रेक्षा के उदाहरण मिलते हैं। निदर्शना (१४-१५-९), रूपकातिशयोक्ति (२१-६), साङ्गरूरक (२४-१७, २१-३), तथा अन्त्यनुप्रास तो कडवकशैली में रचित मात्रिक छन्दों में अनिवार्य रूप से प्रयुक्त होता हैं । स्वयंभू के अलंकारप्रयोग काव्यसौन्दर्य को उत्कर्ष प्रदान करते है । अलंकारों का कृत्रिम प्रदर्शन स्वयंभू ने नहीं किया है ।
"रिटूठणेमिचरिउ' में प्रयुक्त छन्दों का अध्ययन एक दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय है । स्वयंभू ने उल्लेख किया है कि 'पबडिया' छन्द उन्हें चतुर्मुख से प्राप्त हुआछड्डणि-दुवई-धुवएहिं जडिय, चउमुहेण समप्पिय पद्धडिय ।
__ 'रिट्ठणेमिचरिउ'. १-२. 'छट्टिणका, दुवई, ध्रुवक से जडित पद्धडिया चतुर्मुख ने समर्पित की। स्वयंभू छंदशास्त्र के आचार्य थे। अपने 'स्वयंभूच्छंद' में उन्होने अपभ्रंश छन्दों का
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