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गङ्गा का अनेक बार भक्तिपूर्ण भाव से स्मरण किया है (१५-३, १८-१६, २३-१, २४-१२), गङ्गा के तट का वर्णन (२३-१) मनोरम है । अन्य सरिताओं में गोदावरी का उल्लेख हुआ है (२१-१८)।
स्वयंभू ने श्रेष्ठ काव्यरचना के सम्बन्ध में कई बार उल्लेख किया है, वे कहते हैं कि सुकवि का काव्य बहुत रोचक होता है
ण सुकइ-कव्वु वहु रंजणउ। २१-३
ण सुकइ महाकह गिरवसर्दु । २२-८ 'सुकवि की महाकथा के समान अपशब्दरहित है।'
सुंदर सु कइ कहव्व पसिद्धि-३२-१३ 'सुन्दर सुकवि की कथा के समान प्रसिद्ध है ।'
स्वयंभू की कृति यथार्थ में अत्यन्त रोचक और अपशब्द रहित है । महाभारत कथा के अत्यंत प्रसिद्ध प्रसङ्ग चुने हैं और उनको अपनी काव्यप्रतिभा से अधिक प्रभामण्डित किया है ।
स्वयंभू की अपभ्रंश भाषा का विशद अध्ययन होना चाहिए। प्रा. भायाणी ने 'पउमचरिउ' के प्रथम भार को भूमिका में (पृ. ५७-७८) 'पउमवरिउ' की भाषा पर विचार किया है । आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाओं के विकास को आरंभ अ. भ्रश में मिलता है। स्वयंभू ने अपनी कृतियों में परिनिष्ठित अपभ्रश का प्रयोग किया है । कारक चिह्नों का स्वतंत्ररूप में विकास अपभ्रश की विशेषता है जिसको हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाओं के कारक चिह्नों के विकास का पूर्वरूप कह सकते हैं, निर्विभक्तिक प्रयोग, संयुक्त क्रिया के प्रयोग, तथा कर्मवाच्य के प्रयोगों में पुरानी हिन्दी की विशेषताएँ मिलती हैं-हिन्दी में सकर्मक क्रिया के भूतकालिक रूपों में 'ने' का प्रयोग कर्ता के साथ होता है उसका पूर्वरूप 'ताम विओयरेण रहु वाहिउ' (२९--१४) 'तब वृकोदरने रथ चलाया ।' जैसे प्रयोगों में ढूंढा जा सकता है । अनेक लोकोक्तियाँ और मुहावरे, जिनका प्रयोग स्वयंभू ने किया है आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त होते है यथा—णामु चडाविउ ससि-फलए' (१४-१६) 'शशिफलक पर नाम लिखना;' 'मुंह पर कालिख बोल दी-'मुहे दिण्णु गाई मसि कुंचउ' (१५-४)।
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