SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकट होते हैं । विराटपुत्र उत्तर अर्जुन से प्रच्छन्न वेश में रह रहे पाण्डवों का परिचय प्राप्त करता है। वह अपने पिता से पाण्डवों का परिचय देते हुए युधिष्ठिर के विषय में कहता है-- वसुमइ जासु सेव करइ, जो कया-वि लक्खणेहिं ण मुच्चइ । जासु रिद्धि सुर रिद्धि सम, उहु सो राउ जुहिट्ठिलु वुच्चई ॥ 'वसुमती जिसकी सेवा करती है, जिसे शुभ लक्षण कभी नहीं छोड़ते, जिसकी समृद्धि देवताओं की समृद्धि के समान है, वह राजा युधिष्ठिर कहा जाता है ।' कुरुकांड की समाप्ति हर्ष और उल्लास के वातावरण में होती है, उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से होता है। अवसर पर सभी सुहृद, बन्धु, बान्धन सम्बन्धी आते है । कवि कहता है : सव्वई होंति जुहिट्ठिल पुण्णेहि-३२-१२. 'सब शुभ युधिष्ठिर के पुण्य से हो रहा है ।' इसी उक्ति से कवि कांड की समाप्ति करता है'मिलिय कोंति णिय वंधवह, धम्म-पुत्तु धम्महे कालु पत्तउ ।' ३२-१३ 'कुंती अपने स्वजनों से मिली, धर्मपुत्र को धर्म का फल मिला ।' स्वयंभू ने धर्म की विजय दिखाई है । उनका मन उदार था, धर्म का सीमित रूप कवि को मान्य नहीं था : भ्यानमग्न युधिष्ठिर अर्हत को हरिहर से अलग नहीं समझते-. तुहु हरि हरु तुहु अहं तु बुट्ठ-२७-३. या शान्ति भट्टारक की प्रार्थना करते हुए कवि कहलाता हैतुहु वंभाणु विठ्ठ सिउ संकरु, तुहु सिद्धंतु मंतु तुहु अक्खरु । १८-७ 'तुम ब्रह्मा, विष्णु, शिव और शङ्कर हो, तुम सिद्धान्त, मन्त्र हो तुम अक्षर (ब्रह्म) हो ।' एकचक्रानगरी में पाण्डव जिनवर की वन्दना करते है,' उनके लिए प्रयुक्त विशेषण भी व्यापक ब्रह्म के हैं (संधि २०-१)। वेदों का भी उन्होंने स्मरण किया है (२१-१०), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001427
Book TitleRitthnemichariyam Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages220
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy