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रिट्णेमिपुराणसंग्रहे घवलाइयासिया-कय-सयंभुएव-उव्वरिए - तिहुयण-सयंभुsr पंडुसुत्रो भव णवोहिय सय संधि ॥ १०९॥
इह जसकित्तिकरण पत्र - समुद्राणराय एक्कमणं । पडस्थ अक्लियज्जइणा || १॥
asraatr ते जीवंनिय भुवणे सज्जण-गुण- गणह-राय-भावस्था ।
परकवं कुल वित्त विहड्डियां पि जे समुद्धरहिं || संधि १०९ ॥
संधि ११० के अंतिम कडवक ( १२ ) को अत की पंक्ति में 'जसकित्ति' का नाम आया है किन्तु संधि की पुष्पिका में उसका नाम नहीं है :
इय रिट्ठणेमिचरिए घयलाइमिय
समुऋय उवरिए तिहुयणसयंभुकइणा
समाण दहसयं ॥ ११०॥
णिय जसुकित्तिति लोए पयासउ | हि सयंभुजिणे चिरु आहासिउ ॥ १२ ॥ १९१ संधि के आरंभ के पद्य में तिहुयण तथा जसकित्ति दोनों का उज्लेख मिलता है :
एक्को सयंभु विउसो तहो पुत्तो णाम तिहुयण सभो । को वणिउ समत्थों पिउ-भर- निव्वहण - एककमणो ॥
संधि के अंत की घत्ता है :
तेतीस विरसे असण गिण्हंति माणसे गुच्छ । तेत्तिय पक्खुसास जसकित्ति - विहूसिय सरीरे ॥
इय रिट्ठणेमिचरिए भवलइयासिव - संयभुएव - उवरिए तिहुयण-सयंभु - रइए नेमिनिव्वाण - पंडुसुयति ॥ संधि १११ ॥
संधि १२ के अंत के घत्ता में 'जसकित्ति' का नाम है :
इह वह संघ विहुणिय - विग्घह, णिण्णासिय भव-र-मर | जसकित्ति पयासणु, अखलिय, सासणु, पयडउ संति सयभुजिणु ॥ ११२-१७. अन्य संधियों के समान पुत्रिका में जसकित्ति का नाम नहीं है :
इय रिट्ठमिचरिए धवल इयासिय सयंभु एव - उरिए तिहुयण-सयंभु- रइए समाणियं कण्ह कित्ति - हरिवंस || छ|| गुरुपद्रवासभय सुयणाणाणुक्कम जहाजाया सयमिक्क दुद्दहअहिय संधि ११२ ॥ इति हरिवंशपुराण ं ॥
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