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________________ * 36 रिट्णेमिपुराणसंग्रहे घवलाइयासिया-कय-सयंभुएव-उव्वरिए - तिहुयण-सयंभुsr पंडुसुत्रो भव णवोहिय सय संधि ॥ १०९॥ इह जसकित्तिकरण पत्र - समुद्राणराय एक्कमणं । पडस्थ अक्लियज्जइणा || १॥ asraatr ते जीवंनिय भुवणे सज्जण-गुण- गणह-राय-भावस्था । परकवं कुल वित्त विहड्डियां पि जे समुद्धरहिं || संधि १०९ ॥ संधि ११० के अंतिम कडवक ( १२ ) को अत की पंक्ति में 'जसकित्ति' का नाम आया है किन्तु संधि की पुष्पिका में उसका नाम नहीं है : इय रिट्ठणेमिचरिए घयलाइमिय समुऋय उवरिए तिहुयणसयंभुकइणा समाण दहसयं ॥ ११०॥ णिय जसुकित्तिति लोए पयासउ | हि सयंभुजिणे चिरु आहासिउ ॥ १२ ॥ १९१ संधि के आरंभ के पद्य में तिहुयण तथा जसकित्ति दोनों का उज्लेख मिलता है : एक्को सयंभु विउसो तहो पुत्तो णाम तिहुयण सभो । को वणिउ समत्थों पिउ-भर- निव्वहण - एककमणो ॥ संधि के अंत की घत्ता है : तेतीस विरसे असण गिण्हंति माणसे गुच्छ । तेत्तिय पक्खुसास जसकित्ति - विहूसिय सरीरे ॥ इय रिट्ठणेमिचरिए भवलइयासिव - संयभुएव - उवरिए तिहुयण-सयंभु - रइए नेमिनिव्वाण - पंडुसुयति ॥ संधि १११ ॥ संधि १२ के अंत के घत्ता में 'जसकित्ति' का नाम है : इह वह संघ विहुणिय - विग्घह, णिण्णासिय भव-र-मर | जसकित्ति पयासणु, अखलिय, सासणु, पयडउ संति सयभुजिणु ॥ ११२-१७. अन्य संधियों के समान पुत्रिका में जसकित्ति का नाम नहीं है : इय रिट्ठमिचरिए धवल इयासिय सयंभु एव - उरिए तिहुयण-सयंभु- रइए समाणियं कण्ह कित्ति - हरिवंस || छ|| गुरुपद्रवासभय सुयणाणाणुक्कम जहाजाया सयमिक्क दुद्दहअहिय संधि ११२ ॥ इति हरिवंशपुराण ं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001427
Book TitleRitthnemichariyam Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages220
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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