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इसी प्रकार संधि १०६ की पुष्पिका में भी त्रिभुवन का नामोल्लेख नहीं हुआ । संधि १०५ में पुनः त्रिभुवन का नाम आता है । इस संधि के कडवक १२ में एक दोहा (दोहडा) भी उद्धृत हुआ है :
कप्प–महीरुह कप्पतरु वल्लीवण हिं विचित्तु । अइ वित्थरु संतावहरु ण सप्पुरिसहो चित्तु ॥ सयंभुयएण विढत्तु धणु जिय विलसिज्जइ संत ।
तेम सुहासुह कम्मडा भुज्जिजहि बिवयंत ॥' संधि १०६.१२. इय रिडणेमिचरिए धवलइयासिय संयभुए(व)-उव्वरिए तिहुयणमयंभु-रइए समाणिय सोय-वलहई । संधि १०७ ॥
१०८ संधि की अंतिम घत्ता में 'जसकित्ति' का नामोल्लेस है और साथ ही स्वयंभू का भो
पिय मायरिहि विराइय, महि विक्खाइय, भूसिय णिय जसकित्ति जणि ।
जिण दिक्वहे कारणे, दुक्खणिवारणे, देउ सयंभुय घरेवि मणे ॥२ १०८-२०. संधि की पुरिपका में 'जसकित्ति' के नाम का उल्लेख नहीं मिलता :
इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभुएव ओव्वरिए तिहुयणसयंभुरइ(ए) हलहर-दिक्खासम कहिय ॥छ।। जरकुमार-रज्जलाभो पंडव-घरवा समोह-परिचायौं सयअट्ठाहिय संधि समाणिय एत्थ वरकइणा ॥१०८॥
संधि १०९ की पुष्पिका में 'जसकित्ति' का नाम नहीं है किन्तु उसके पश्चात् कुछ पंक्तियों में जहकित्ति कवि का उल्लेख हुआ है :
१. वह कल्पवृक्ष, कल्पतरु, लता और वनों से विचित्र सौंदर्य पूर्ण है, अत्यंत विस्तृत है, दुःख को हरण करने वाला है, मानो सत्पुरुष का चित्त है । स्वय अपनी भुजाओं से कमाया धन सज्जनों के मन को सुशोभित करना है, इसी
प्रकार शुभ और अशुभ कर्मो का भोग संतोषपूर्वक करना चाहिए । २. पिता-माता के विराजित रहते पृथ्वी में प्रसिद्ध लोक में अपने यश और
कीर्ति (यश-कीर्ति) से भूषित जिन दीक्षा के किए दुःखनाश के हेतु स्वयंभू देव को मन में धारण करके...(कार्य से)।
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