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334 ९० संघियाँ स्वयंभू कृत हैं । शेष अंतिम संधियाँ उनके पुत्र त्रिभुवन तथा बहुत पीछे के कवि 'जसकित्ति' द्वारा रचित हैं । ९० तक की पुष्पिकाओं की भाषा तथा शब्दावली एक सी है-यथा ।
इय रिठणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभुवकए अहाणवो सग्गो ।
इसके पश्चात की संधियों की पुष्पिकाओं में स्वयंभू के साथ उनके रचयिताओं का उल्लेख भी मिलता है :
संधि ९९ में 'कविराजधयल विनिर्मिते' प्रमुक्त हुआ हैं । धयल का एक पाठ 'धवल' भी मिलता है । पुष्पिका के अंत में निम्न गाथा मिलती है :
काऊण पोमचरिय सुद्धयचरियं च गुणगणग्य वय । हरिवंस-मोह-हरणे सरस्स-सुढिय मो [ई] देह-व्व ॥
इससे यह सूचना मिलती है कि स्वयंभू ने किसी 'सुद्धयचरित' कृति की भी रचना की थी, किन्तु ऐसा अर्थकरण अधिक संगत लगता है कि 'सुद्धयचरिय'-'पउम चरिड का विशेषण है, पवित्र करनेवाले पद्मचरित की रचना करके मोहहरण करने वाले हरिवंश की रचना की । जो हो अभी-तक स्वयंभू द्वारा रचित किसी 'सुद्धयचरित' की सूचना नहीं प्राप्त हुई है।
संधि १०० तथा आगे की संधियों की पुष्पिकाएँ इस प्रकार है :
इय रिठणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभुवकए उवरिए तिहुयणसयंभु - महाकइसमाणिए समवसरणो णाम सउम सग्गो ॥१०॥
'रिणेमिचरिउ' का समवसरण नामक सौवां सर्ग समाप्त हुआ जो धवलइया के माश्रित स्वयंभू कवि द्वारा शेष रह गया तथा जिसे त्रिभुवन स्वयंभू महाकवि ने रचा ।
संधि १०१, १०२, १०३ की पुष्पिकाओं में भो रचयिता के रूप में त्रिभुवन स्वयंभ का उल्लेख मिलता है तथा संधि में वर्णित विषय का भी उल्लेख हुआ है। संधि १०५ की पुष्पिका में त्रिभुवन स्वयंभू का नाम नहीं दिया गया । संधि १०४ के अंतिम कडवक में 'जसकित्ति' का नाम आया है-जिमि जसकिति पवित्थरहो ३॥१६॥, कडवक १५ में 'उक्तं च, तथा च, अन्यच्च' निर्देश देकर पद्य उद्घत किए गए हैं--पुष्पिका है-'इय रिटणेमिचरिए सयंभुकए दाराव इदाह पर्वमिण-संधि १०५'।
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