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रचनाएँ
स्वयंभू की तीन कृतियाँ हैं । 'पउमचरिउ' जिसका आलोचनात्मक पाठ विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ डॉ. हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी ने प्रस्तुत किया है । ग्रन्थ तीन भागों में भारतीय विद्याभवन से प्रकाशित हुआ हैं । प्रथम और द्वितीय खण्ड सन् १९५३ में प्रकाशित हुए और तीसरा खण्ड सन् १९६० में प्रकाशित हुआ। कृते की भूमिका में स्वयंभू के जीवन तथा कृतियों पर गंभीरता से विचार किया गया हैं । 'पउमचरिउ' की भाषा, छन्द, अन्य परवर्ती कवियों पर स्वयंभू की कृतियों का प्रभाव तथा अन्य सभी पक्षों पर अधिकारिक दंग ले आलोचना की गई है।
स्वयंभू की दूसरी कृति 'स्वयंभू च्छन्द' राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में ग्रन्थाङ्क ३७ के रूप में प्रोफे पर हरि दामोदर वेलणकर द्वाग संपादित होकर जोधपुर से सन् १९६२ में प्रकाशित हुई । स्वयंभू छन्द' में प्राकृत और अपभ्रश के छन्दों का विवेचन और परिचय दिया गया हैं । अपभ्रंश काव्यधारा में प्रयुक्त छन्दों का स्वरूप
और गउन समझते के लिए 'स्वयंभूच्छन्द' बहुत ही श्रेष्ठ ग्रन्थ है । हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' तथा अन्य परवर्ती अपभ्रंश छन्द के ग्रन्थकारों ने स्वयंभू की कृति से प्रेरणा प्राप्त की होगी । स्वयंभू स्वयं कवि थे और उन्होंने अपनी कृतियों में अनेक छन्दों का प्रयोग किया है, छन्दशास्त्र और छन्दरचना तथा प्रयोग सभी पक्षों का उनका परिचय गहन था । लक्षणों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अनेक कविओं के पद्य उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किए हैं। प्राकृत-अपभ्रश के विशाल साहित्य से उनका परिचय था। और वे काव्य के अच्छे पारखी थे-इसका प्रमाण भी उदाहरणों के लिए चुने छन्दों से मिलता है । 'स्वयंभूच्छन्द' काफी लोकप्रिय ग्रन्थ था । इसको 'स्वयंभूच्छन्द' की हस्तलिखित प्रति का बंगाक्षरों में प्राप्त होना भी सिद्ध करता है ।२
स्वयंभू की तीसरी कृति :रिट्ठणेमिचरिउ' या 'हरिवंशपुराण' है । जिस रूप में इस कृति की हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं उसमें ११२ संधियाँ मिलती हैं । इस में
१. भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से 'पउमचरिउ' का हिन्दी अनुवाद सहित पाठ
प्रकाशित हुआ है। २. देखिए-'स्वयंभूच्छन्द' की भूमिका-पृष्ठ ३.
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