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________________ 31 और अपने विषय में कहा है कि हल्के, पतले शरीरवाले थे, चपटी नाक थी और बिखरे दांत थे : पउमिणि-जणणि-भ-संभूए', मारुयएव-रूव-अणुराए । अइ-तणुएण पईहर-गत्तै छिम्वर–णासे पविरल-दन्ते । -पउम वरिउ. १.२. स्वयंभू ने अपनी दोनों महान् कृतियों-'पउमचरिउ' और 'रिहणेमिचरिउ' में अपना और अपने आश्रयदाता का नामोल्लेख किया है । प्रत्येक संधि के अन्त में श्लोक के द्वारा अपना नाम दिया है । परमचरिउ किन्ही धनंजय के आश्रय में रहकर रचित हुआ और रिट्ठणेमिचरिउ किन्हीं धवलइया के आश्रम में रचित हुआ। धनं. जय और धवलइया के विषय में भी कुछ ज्ञात नहीं हुआ है । वयभू जितने विद्वान् और महान कवि थे इतने ही विनयी । अपने नाम के साथ उन्होंने किसी प्रकार के बिरुद या विशेषण का प्रोग नहीं किया है-केवल 'सयंभुव-कए' (स्वयंभू-कृते) शब्दों का प्रयोग किया है । 'पउमचरिउ' और 'ट्ठियोमिचरिउ' के आरंभ में अपने 'अज्ञान (!)' के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है वह विनय की पाराकाष्ठा है । तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' के आरंभ में अपने विषय में जो कुछ कहा है वह स्वयंभू के कथन से बहुत मिलता है : वुहयण सयंभू पइविण्णवई, मई सरिसउ अण्णु णाहिं कुकइ । प. च. १.३ 'बुधजनों' स्वयंभु आप से विनय करके कहता है, मेरे समान दूसग कुवि नहीं है।' 'रिट्ठणेमिचरिउ' में वे कहते हैं । "मैं व्याकरण नहीं जानता, वृत्ति, सूत्र नहीं जानता, सबका आशीर्वाद चाहता हूँ : जणणयणाणंद जणेजिए । आसीसिए सव्वहु केरिजए पारंभिय पुणु हरिवंशकह ।........ रि. च. १.२. स्वयंभू जितने विनयी थे, उनके पुत्र त्रिभुवन उनने ही मुखर थे । 'पउमचरिउ' और 'रिणमिचरिउ' दोनों ही कृतियों के अन्त में कुछ संधियाँ त्रिभुवन रचित हैं । अपनी प्रसिद्धि के सम्बन्ध में घोषणा करते समय उसने अपने पिता स्वयंभू के सम्बन्ध में भी कुछ उल्लेख लिए हैं । 'पउमचरिउ' में त्रिभुवन ने सात चियाँ (८३-९०) जोड़ी हैं और 'रिणेमिचारउ में आतम तरह (१००-११२) संधियाँ । इन धियों की पुष्पिकाओं में त्रिभुवन ने स्वयंभू को महाकवि (प. च. ८५), कविगज (प. च. ८६), कविराज चक्रवर्ती (प. च. ८८) कहा है तथा अपनी भी उसने खूब प्रशंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001427
Book TitleRitthnemichariyam Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages220
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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