________________
30
(२) 'महापुराण की संधि ६९ में रामायण का आरंभ करते समय पुष्पदन्त' स्वयंभू तथा चर्तुमुख का पुनः स्मरण करते हैं :
कगउ मयंभु महायरिउ सो सयणसहासहिं परियरिउ ।
'महाचार्य कविराज स्वयंभू जिसकी सहस्त्रों स्वजन (मज्जन) परिचर्या करते हैं ।' संवत् ११०० के लगभग हरिषेण ने अपनी अपभ्रंश कृति 'धम्म परिकरण ' में स्वयंभू का प्रशंसात्मक उल्लेख किया है :
चरमुहु कव्व-विश्यणि सयंभु वि पुष्यंतु अण्णाणु णिसुंभिवि । तिण्णि वि जोग्ग जेण तं सांसइ चउमुह - मुद्दे थिय ताव सरासइ । जो सयंभु सो देउ पहाणउ अह कह लोयालोय वियाणड ॥ धम्मपरिक्ख की हस्तलिखित प्रति से संधि १, कडवक १.
'चतुर्मुख, स्वयंभू तथा पुष्पदन्तु की काव्यरचना विश्रुत है । तीनों ही योग्य हैं, इसीसे उनकी प्रशंसा है । चतुर्मुख के मुख में सरस्वती विराजती है, जो स्वयंभू है, वह प्रधान देव सा है । कथा कहने में लोक- अलोक सभी का ज्ञान उनको है । चतुर्मुख की कोई बड़ी रचना प्राप्त नहीं है । स्वयंभू और हरिषेण के समय उनकी कृतियां उपलब्ध रही होंगी । चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्त अपभ्रंश काव्यधारा की वृहत्त्रयी हैं । परवर्ती अनेक कवयों ने इसका स्मरण किया है।' पुष्पदन्त ने 'महापुराण' की रचना सन् ९५९-९९० ई. के बीच में की थी । अतः स्वयंभू के काल की सीमा सन् ६७७-९६० ई. के बीच निश्चित होती है । तीन सौ वर्ष की इस कालावधि को और कम किया जा सके इसके लिए और निश्चित प्रमाणों की प्रतीक्षा करनी होगी ।
स्वयंभू ने अपने संबंध में अपनी कृतियों में बहुत ही कम लिखा है । एक स्थल पर अपनी माता का नाम पद्मिनी और पिता का नाम मारुतदेव लिखा है
१. देखिए : 'पउमचरिउ', प्रथम भाग, संपा. डॉ. भायाणी, भूमिका, पृष्ठ ३० तथा आगे ।
२. 'महापुराण' की भूमिका, पृ. xxxxxxi - डा. प. ल. वैद्य, बम्बई १९३७. ३. स्वयंभू के समय की पुनर्विचारणा के लिए दृष्ट्य, 'पउमचरिउ, खण्ड ३, भूमिका, पृ. ४१ और आगे. सा. सं.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org