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स्वयंभू का जीवन ।
स्वयंभू के जीवन पर अनेक विद्वानों ने विचार किया है ।' डॉ. हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी ने 'पउमचरिउ २ की विद्वत्तापूर्ण भूमिका में सभी ज्ञात तथ्यों का आलोचनात्मक अध्ययन करके स्वयंभू के जीवन और कृतियों पर अच्छा प्रकाश डाला है । 'पउमचरिउ' के प्रथम भाग ( विद्याधरकाण्ड १ - २० संधि) की भूमिका स्वयंभू के समग्र व्यक्तित्त्व को समझते के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री है। स्वयंभू ने अपने संबंध में बहुत कम लिखा है, किन्तु वे महान् कवि और साहित्यकार थे । उनकी कृतियां उनके जवनकाल में ही कदाचित् प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थीं, उनके परवर्ती कवियों ने अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ अपनी कृतियों में उनका स्मरण किग है । स्वयंभू पूरी प्रशस्त भारतीय काव्यपरंपरा से परिचित थे । अपनी कृतियों में अत्यंत विनय के साथ अपने पूर्ववर्ती काव्यरचयिताओं का उन्होंने स्मरण किया है । और उनके इन उल्लेखों के आधार पर स्वयंभू की कालसीमा की मोटी रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है ।
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'पउमचरिउ' में स्वयंभू लिखते हैं, पिंगल - प्रसार मैंने नहीं समझा, भामह, दण्डी का अलंकार मैंने नहीं समझा ' ( प च सन्धि- १ कडकर - ३ - ३ ), इन्द्र ने व्याकरण दिया, भरत ने रस और व्यास ने विस्तार विंगल ने छन्द-पद - प्रस्तार, भामह - दंडी ने अलंकार, वाण ने घनघनत्व (शैली) समर्पित की, अपना अक्षराडंबर दिया, श्री हर्ष ने निपुणत्त्र, दूसरे कवियों ने कवित्व, चतुर्मुख ने छड्डाणे का, दुवई, ध्रुवक (अपभ्रंश का छन्दविधान), से युक्त पद्धडिया (छन्द) समर्पित किया ।
१. मधुसूदन चिमनलाल मोदी : अपभ्रंश पाठावली, १९३५ ई : गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद - १.
नाथुगम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, १९४२ ई.
2.
राहुल सांकृत्यायन : प्राचीन हिन्दी काव्यधारा
हरिवंश कोछड़ : अपभ्रंश साहित्य, १९५५ ई.
देवेन्द्रकुमार जैन : रणेमिचरिउ १९८५ ई. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली १. पउमचरिउ - संगदक हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी, भारतीय विद्याभवन, बंबई, १९५३ ई.
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