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________________ 27 2 कृति का आरंभ ‘सिद्धि । णमो अरिहंताय' शब्दों से होता है । कृति की समाप्ति 'इति हरिवंशपुराण समाप्त । शुभ । ग्रन्थ संख्या सहस्त्र १८००० ।' शब्दों के साथ हुई है । पुष्पिका का अंतिम अंश उपलब्ध नहीं है । प्रति का लिपिकाल दिया हुआ हे । 'संवत् १५९६ वर्षे वैशाख सुदि २ दिने इष्टिका पथ दुगे तुरतीवेग गज्ये श्री मूलसंधे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे ! कुंदकुदाचार्यान्वये भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेव तत्पट्टे भहारक श्री स्यंघकीर्तिदेव । तदाम्नाये लंबुकंचुका(वुका ?)न्वये बुढेले गोत्रे । जिचरणकम चंचरीकान् दानपूजासुमुदितान् परोपकार निस्तात् माधुत्वगुणसमुदितान साधु श्री वसू भार्जा भजो तत्पुत्र ति............।' इस प्रति का संकेत 'हि' (H) दिया है । इन प्रतियों के अतिरिक्त रिवंशपुराण' की एक प्रति मैंने ब्यावर (राजस्थान) के एक जैनग्रन्थभण्डार में देखी थी । प्रति आधुनिक प्रतिलिपि है । बीच बीच में कुछ अंश छूटे हुए हैं । मैंने उसे अपने काम के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं समझा । ऊपर चचित तीनों ही प्रतियों की लिखावट में ममान विशेषताएं मिलती हैं । जैन नागरी लिपि की लिखावट है, ओ, च्छ, स्थ, ण, भ, ग्ग, क्ख, दृ, ठ, झ, ज्ज वर्ण तीनों में एक ही ढंग से लिखे गए हैं । शब्द अलग अलग तोड़कर नहीं लिखे हैं । जयपुर की प्रति में कहीं कहीं अनुस्वार का प्रयोग अधिकता से हुआ है । एव, जेव को एम्व, जेम्व रूपों में लिखा गया है । पश्चिमी अभ्रंश तथा मध्यदेशीय अपभ्रंश में ओष्ठ्य ब का प्रयोग अर्द्धस्वर व के स्थान पर भी होता है । तीनों ही हस्तलिखित प्रतियों में सर्वत्र व लिखा हुआ मिलता है, कहीं कहीं 'ब' का प्रयोग हुआ है जैसे 'लंब' 'बाहु' में | अनुस्वार का प्रयोग अन्त्यानुप्रास (पादपूर्ति) के लिए अनेक स्थलों पर अनावश्यक रूप में किया गया है । अपभ्रंश कवि छन्द की लय को ठीक रखने के लिए कभी कभी एक मात्रा कम कर देते हैं, कभी कभी बढा देते हैं ! हस्तलिखित प्रतियों में पाठभेद कम ही मिलते हैं, कहों प्रमाद वश लिखावट में त्रुटि प्राप्त होती है, कहीं कहीं एक दो पंक्तियाँ किसी प्रति में छूट गई हैं, कहीं एक या अर्द्ध चरण घटा बढ़ा मिलता है, उसे मूल में मिलाकर पाइटिप्पणी में संकेत कर दिया गया है । पदों को अलग करके लिखा गया है और बीच में पदविच्छेदक संकेत (डैश) का प्रयोग किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001427
Book TitleRitthnemichariyam Part 2
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages220
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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