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भ्रश के ग्रन्थों को देखने तथा अध्ययन करने के लिए गया था, तब मैंने इस प्रति को देखा था । बाद में डॉ. कस्तूरचन्दजी कासलीवाल और चैनसुखदाम न्यायतीर्थ की कृपा से यह प्रति सन् १९५७-५८ में मेरे पास रही । उसी समय मैंने इस प्रति के आधार पर इसकी प्रतिलिपि तैयार की । प्रति में ४०६ पृष्ठ हैं । प्रत्येक पृष्ठ पर १२-१३ पंक्तियाँ हैं, प्रत्येक पंक्ति में अक्षरों की संख्या ४७ मे ५७ के बीच में है । किसी किसी पंक्ति में अक्षरों की संख्या अधिक है। प्रति का आरंभ '30 नमो वीतरागाय' शब्दों से होता है ।
प्रति की 'समाप्ति इति हरिवंशपुराण समाप्त । ग्रन्थसंख्या सहस्र १८००० पूर्वोक्त' शब्दों से हुई है।
प्रति के अन्त में लिपिकाल दिया गया है । संवतु १५८२ वर्षे फाल्गुन वदि १३ त्रयोदशी दिवसे शुक्रवासरे श्रवण नक्षत्र जोगे, चंपावती गढ़ नेग्र (नगरे) ५ महाराज श्री रामचंद्र राज्ये...........।'
प्रति का कागज हाथ का बना हुआ है । प्रति की अवस्था बहुत अच्छी नहीं है । काफी पुरानी लगती है । बीच में कुछ पृष्ठ एक दूसरे से चिपट गए हैं और नष्ट हो गए हैं। मैंने इस पोथी के पाठ को आधार माना है । जयपुर की इस प्रति के लिए मैंने 'ज' (J) संकेत का प्रयोग किया है । कृति में कहीं वहीं
अन्य प्रतियों की तुलना में पाठ अधिक है। कहीं कहीं पाठ छूट भी गया है । ऐसी स्थिति में अन्य प्रति के पाठ का सहारा लिया है ।
कृति की तीसरी प्रति विश्वभारती विश्वविद्यालय के हिन्दी भवन के पुस्तकालय मैं है । कई वर्ष पूर्व मैं ने ही इस प्रति को दिल्ली के दरियागंज स्थित वीरसेवा मंदिर के पंडित परमानन्द जैन से विश्वभारती के लिए खरीदा था। प्रति पूर्ण है । ४५० पृष्ठों में समाप्त हुई है । प्रत्येक पृष्ठ पर १२ पंक्तियाँ है । प्रत्येक पंक्ति में ४.. से ५० अक्षर हैं । संपूर्ण प्रति एक ही प्रकार की लिखावट में है । लेख स्पष्ट तथा सुवाच्य है । पृष्ठ के दोनों ओर हाशिया छोड़ा गया है और बीच में तथा हाशिये में लाल स्याही से गोल बड़ी विन्दी अंकित की गई है । छन्दों के नाम भी लाल स्याही में लिखे गए हैं ।
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