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अमितगतिविरचिता अमितगतिविकल्पैर्धविन्यस्तहस्तैमनुजदिविजवर्गः सेव्यमानं जिनेन्द्रम् । यतिनिवहसमेतं स प्रणम्योरुसत्त्वो
मुनिसदसि निविष्टस्तत्र संतुष्टचित्तः ॥७० इति धर्मपरीक्षायाम् अमितगतिकृतायां प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥
७०) १. अगणितमनुषा [ष्य ] देवैः । २. उपविष्टः ।
वहाँ जाकर उसने अपरिमित भेदोंसे सहित तथा नमस्कारमें तत्पर होकर शिरपर दोनों हाथोंको रखनेवाले ऐसे मनुष्यों एवं देवोंके समूहों द्वारा आराधनीय और मुनिसमूहसे वेष्टित उन मुनीन्द्रको प्रणाम किया और तत्पश्चात् मनमें अतिशय हर्षको प्राप्त होता हुआ वह महासत्त्वशाली मनोवेग वहाँ मुनिसभा (गन्धकुटी ) में बैठ गया ।।७०॥
इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१॥
७०) ब क ड इ प्रणम्य प्रणम्य ।
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