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________________ [२] सभायामथ तत्रैको भव्यः पप्रच्छ भक्तितः। नत्वा जिनमति साधु मवधिज्ञानलोचनम् ॥१ भगवन्नात्र संसारे सरतां' सारजिते । कियत्सुखं कियद दुःखं कथ्यतां मे प्रसादतः ॥२ ततो ऽवादीद्यतिर्भद्र' श्रूयतां कथयामि ते । विभागो दुःशकः कतु संसारे सुखदुःखयोः ॥३ मया निदर्शनं दत्त्वा किंचित्तदपि कथ्यते । न हि बोधयितुं शक्यास्तद्विना मन्दमेधसः॥४ अनन्तसत्त्वकीर्णायां संसृत्यामिव मार्गगः । दीर्घायां कश्वनाटव्यां प्रविष्टो दैवयोगतः ॥५ १) १. क मुनिम्। २) १. भ्रमतां जीवानाम् । ३) १. हे मनोवेग । २. असाध्यः अशक्यः; क दुःशक्यः । ४) १. दृष्टान्तमाह । २. क तेन दृष्टान्तेन विना। ३. क मूर्खस्य । ५) १. ना पुमान् । उस सभामें किसी एक भव्यने जिनमति नामके अवधिज्ञानी साधुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनसे पूछा कि हे भगवन् ! इस असार संसारमें परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंको सुख कितना और दुःख कितना प्राप्त होता है, यह कृपा करके मुझे कहिए ॥१-२।। इसपर वे मुनि बोले कि हे भद्र ! सुनो, मैं उसको तुम्हें बतलाता हूँ। यद्यपि संसारमें सुख और दुःखका विभाग करना अशक्य है, तो भी मैं दृष्टान्त देकर उसके सम्बन्धमें कुछ कहता हूँ। कारण यह है कि बिना दृष्टान्तके मन्दबुद्धि जनोंको समझाना शक्य नहीं है ॥३-४॥ जैसे-दुर्भाग्यसे कोई एक पथिक अनन्त जीवोंसे परिपूर्ण संसारके समान अनेक जीव-जन्तुओंसे व्याप्त किसी लम्बे वनके भीतर प्रविष्ट हुआ ॥५॥ १) इ पप्रच्छ सादरम्; ड जिनपति । ४) ड इ न विबोध; ब शक्यात्तद्विना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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