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अमितगतिविरचिता
रामा विदग्धा' रमणीयरूपाः कटाक्ष विक्षेपशरैस्तुदन्त्यैः । चारुचापास्तरुणं' जनौघं जयन्ति यस्यां " " द्युनिवासियोषाः ॥६२
यदी लक्ष्मीमवलोक्य यक्षा' व्रजन्ति लज्जां हृदि दुर्निवाराम् । महानिधानाधिपतित्वगर्वाः सा शक्यते वर्णयितुं कथं पूः ॥ ६३ अस्त्युत्तरस्यां दिशि चारु तस्या' महाफलैः सद्भिरिवागपूगैः । उद्यानमुद्योतित सर्वं दिक्कं प्रप्रीणिताशेषशरीरिवर्गैः ॥६४
सर्व तुभिर्दशित चित्र चेष्टेंवि रोधमुक्तैरवगाह्यमानम्' । यदिन्द्रियानन्दकरैरनेकैः संवैरिवाभात्सुमनोभिरामैः ||६५
६२) १. निपुणाः; क प्रवीणाः । २. पीडयन्त्यः; क पीडयन्तः । ३. क युवानम् । ४. क जनसमूहम् । ५. क नगर्यां । ६. स्वर्ग । ७. क देवाङ्गनाः ।
६३) १. क कुबेरादयः । २. क उज्जयिनी ।
६४) १. क मनोहर नगर्या: । २. सत्पुरुषैरिव । ३. वृक्षसमूहैः ।
६५) १. वनम् । २. वनचरैः श्वापदैः पक्षिभिः । ३. पुष्पं, पक्षे मनः ।
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उस नगरीमें स्थित चतुर व सुन्दर रूपको धारण करनेवाली स्त्रियाँ कटाक्षोंके फेंकने - रूप बाणोंसे संयुक्त भ्रुकुटियोंरूप मनोहर धनुषोंके द्वारा युवावस्थावाले जनसमूहको पीड़ित करती हुईं देवांगनाओंको जीतती हैं ॥६२॥
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जिस नगरीकी लक्ष्मीको देखकर महती सम्पत्तिके स्वामी होनेका अभिमान करनेवाले कुबेर हृदय में अनिवार्य लज्जाको प्राप्त होते हैं उस नगरीका वर्णन भला कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता है-वह अवर्णनीय है || ६३ ||
उस उज्जयिनी नगरीकी उत्तर दिशा में एक सुन्दर उद्यान शोभायमान है । वह उद्यान सत्पुरुषोंके समान महान फलोंको देनेवाले वृक्षसमूहोंके द्वारा सब दिशाओं को प्रकाशित करता था—जिस प्रकार सत्पुरुष दूसरोंके लिए महान् फल ( स्वर्गादि ) को दिया करते हैं. उसी प्रकार उस उद्यानके वृक्षसमूह भी प्राणियोंके लिए अनेक प्रकारके फलों (आम, नीबू एवं नारंगी आदि ) को देते थे तथा जैसे सब प्राणिसमूह सत्पुरुषोंके आश्रयसे सन्तुष्ट होते हैं उसी प्रकार वे उन वृक्षसमूहों के आश्रय से भी सन्तुष्ट होते थे । इसके अतिरिक्त वह उद्यान परस्पर के विरोध से रहित होकर प्राप्त हुई व अनेक प्रकारकी चेष्टाओंको दिखलानेवाली सब ऋतुओं के द्वारा सेवित होता हुआ जिस प्रकार इन्द्रियोंको आह्लादित करनेवाले अनेक प्राणियों (भील, सिंहव्याघ्र एवं तोता आदि ) से सुशोभित होता था उसी प्रकार वह सुन्दर सुमन ( फूलों तथा पवित्र मनवाले मुनियों आदि ) से भी सुशोभित होता था ।। ६४-६५।।
६४) व सिद्धिरिवार्ग ; इरिवाशुपूगैः ; इ सर्वदिक्षु ।
६२) अचारुचापैस्तरुणं 'निवासयोषाः । ; ६५) इविरोधमुख्यैरव ।
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