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________________ धर्मपरीक्षा-१ मध्यस्थितामुज्जयिनी प्रसिद्धां तस्यालुलोके नगरों गरिष्ठाम् । पुरन्दरस्येवं पुरीमुपेतां द्रष्टुं धरित्रीश्रियमुत्तमद्धिम् ॥५८ क्षिति विभिद्योज्ज्वलरत्नमूर्ना निरोक्षितुं नाकमिव प्रवृत्तः । शालो यदीयः शशिरश्मिशुभ्रो विभाति शेषाहिरिवाविलयः ॥५९ संपद्यमानोद्धतभाववक्रा पण्याङ्गनामानसवृत्तिकल्पा। अलभ्यमध्या परिखाँ विरेजे समन्ततो यत्र सुदुष्प्रवेशा॥६० अभ्रंकषानेकविशालशृङ्गा यत्रोच्छलच्चित्रमृदङ्गशब्दाः। प्रासादवर्या ध्वजलोलहस्तैनिवारयन्तीव कलिप्रवेशम् ॥६१ ५८) १. मालवदेशमध्यस्थिताम् उज्जयिनी नगरीम् । २. क मालवस्य । ३. क दृष्टवान् । ४. इन्द्रस्य पुरीव । ५. आगताम् । ५९) १. धरणेन्द्रः। ६०) १. क उत्पद्यमान । २. क जलचरमकरादि । ३. क खातिका । ४. क उज्जयिन्याम् । ६१) १. आकाशलग्ना । २. क प्रासादो देवभूभुजाम् । वहाँ उसने मालव देशकी पृथिवीपर मध्यमें अवस्थित गौरवशालिनी प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरीको देखा। वह नगरी इस प्रकार सुशोभित थी मानो उत्तम ऋद्धिसे संयुक्त पृथिवीकी शोभाको देखने की इच्छासे इन्द्रकी ही नगरी आ गयी हो ॥५८॥ चन्द्रकी किरणों के समान धवल उस नगरीका कोट ऐसा शोभायमान होता था जैसे कि मानो उज्ज्वल रत्नयुक्त शिरसे पृथिवीको भेदकर स्वर्गके देखने में प्रवृत्त हुआ अलंघनीय शेपनाग ही हो ।।५९॥ उस नगरीके चारों ओर जो खाई शोभायमान थी वह वेश्याकी मनोवृत्तिके समान थी-जिस प्रकार वेश्याकी मनोवृत्ति उद्धतभाव (अविनीतता) और वक्रता ( कपट ) से परिपूर्ण होती है उसी प्रकार वह खाई भी उद्धतभाव (पानीकी अस्थिरता) के साथ वक्र (टेढ़ी-मेढ़ी) थी, जैसे वेश्याकी मनोवृत्तिका मध्य अलभ्य होता है-उसके अन्तःकरणकी बात नहीं जानी जा सकती है-वैसे ही उस खाईका मध्य भी अलभ्य था-मध्यमें वह अधिक गहरी थी, तथा जिस प्रकार वेश्याकी मनोवृत्तिमें प्रवेश पाना अशक्य होता है उसी प्रकार गहराईके कारण उस खाई में भी प्रवेश करना अशक्य था॥६०।। उस नगरीके भीतर आकाशको छूनेवाले (ऊँचे ) अनेक विस्तृत शिखरोंसे सहित और उठते हुए विचित्र मृदंगके शव्दसे शव्दायमान जो उत्तम भवन थे वे फहराती हुई ध्वजाओंरूप चपल हाथोंके द्वारा मानो कलिकालके प्रवेशको ही रोक रहे थे ॥६१।। ६०) इ अलब्धमध्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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