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________________ ३०४ अमितगतिविरचिता आहारेण विना भग्नाः परीषहकरालिताः । इमे यथा तथान्ये ऽपि लगिष्यन्ति कुदर्शने ॥ ६१ विचिन्त्येति जिनो योगं संहृत्यान्योपकारकः । प्रारेभे योगिनां कर्तुं शुद्धान्नग्रहणक्रमम् ॥६२ अवाप्य शोभनं स्वप्नं भूत्वा जातिस्मरो नृपः । अबूभुजज्जिनं श्रेयान् विधानज्ञो विधानतः ॥ ६३ श्रावकाः पूजिताः पूर्व भक्तितो भरतेन ये । चक्रिपूजनतो जाता ब्राह्मणास्ते मदोद्धताः ॥६४ इक्ष्वाकुनाथ भोजोग्रवंशास्तीर्थंकृता कृताः । आद्येन कुर्वता राज्यं चत्वारः प्रथिता भुवि ॥ ६५ व्रतिनो ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रियाः क्षतरक्षिणः । वाणिज्यकुशला वैश्याः शूद्राः प्रेषणकारिणः ॥६६ ६६) १. परकार्यंकराः । जिस प्रकार भोजनके बिना परीषहसे व्याकुल होकर ये मरीचि आदि मिथ्या मतके प्रचार में लग गये हैं उसी प्रकारसे दूसरे जन भी उस मिथ्या मतके प्रचार में लग जावेंगे, ऐसा विचार करके भगवान् आदिनाथने ध्यानको समाप्त किया व अन्य अनभिज्ञ जनोंके उपकारकी दृष्टिसे मुनि जनोंके शुद्ध आहार ग्रहणकी विधिको करना प्रारम्भ किया - आहारदानकी विधिको प्रचलित करनेके विचारसे वे स्वयं ही उस आहारके ग्रहण करनेमें प्रवृत्त हुए ।।६१-६२।। उस समय सुन्दर स्वप्न के देखनेसे राजा- - श्रेयांसको पूर्व जन्मका - राजा व जंघकी पत्नी श्रीमतीके भवका - स्मरण हो आया। इससे मुनिके लिए दिये जानेवाले आहारदानकी विधिको जान लेनेके कारण उसने भगवान् आदिनाथ तीर्थंकरको विधिपूर्वक आहार कराया ||६३|| पूर्व में सम्राट् भरतने जिन श्रावकों की भक्तिपूर्वक पूजा की थी वे ब्राह्मण के रूपमें प्रतिष्ठित श्रावक चक्रवर्ती द्वारा पूजे जानेके कारण कालान्तर में अतिशय गर्वको प्राप्त हो गये थे ॥६४॥ प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ महाराजने राज्यकार्य करते हुए इक्ष्वाकु, नाथ, भोज और उम्र इन चार वंशों की स्थापना की थी। वे चारों पृथिवीपर प्रसिद्ध हुए हैं ॥ ६५॥ उस समय जो सत्पुरुष व्रत - नियमोंका परिपालन करते थे वे ब्राह्मण, जो पीड़ित जनकी रक्षा करते थे वे क्षत्रिय, जो व्यापार कार्य में चतुर थे - उसे कुशलतापूर्वक करते थे- वे वैश्य, और जो सेवाकार्य किया करते थे वे शूद्र ' कहे जाते थे ||६६|| ६१) अलपिष्यन्ति । ६२) अ संहत्या .... ग्रहणक्षमम्; क श्रद्धान्न । ६३ ) अ आबुभुजे । ६४ ) अ इ महोद्धताः। ६५) ब ंभोजाग्रं; इ चत्वारि । ६६) ड क्षितिरक्षिणः; व वणिज्याकुशलाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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