SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०३ धर्मपरीक्षा-१८ वतं कच्छमहाकच्छौ तापसीयं वितेनतुः । महापाण्डित्यगण फलमूलादिभक्षणैः ॥५५ विधाय दर्शनं सांख्यं कुमारेण मरीचिना। व्याख्यातं' निजशिष्यस्य कपिलस्य पटीयसा ॥५६ स्वस्वपाण्डित्यदर्पण परे मानविडम्बिताः। तस्थविधाय पाखण्डं भुपा रुचितमात्मनः ॥५७ पाखण्डानां विचित्राणां सत्रिषष्टिशतत्रयम् । क्रियाक्रियादिवादानामभून्मिथ्यात्ववर्धकम् ॥५८ चार्वाकदर्शनं कृत्वा भूपौ शुक्रबृहस्पती। प्रवृत्तौ स्वेच्छया कतु स्वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥५९ इत्थं धराधिपाः' प्राप्ता भूरिभेवां विडम्बनाम् । विडम्ब्यते न को दीनः कर्तुकामः प्रभोः क्रियाम् ॥६० ५५) १. विस्तारितः । ५६) १. पाठितम् । ६०) १. भूपाः । उनमें जो कच्छ और महाकच्छ राजा थे उन दोनोंने अपनी विद्वत्ताके अभिमानमें चूर होकर फल व कन्दादिके भक्षणसे तापस धर्म की स्थिरता बतलायी-उन्होंने उपर्युक्त फलादिके भक्षणको साधुओंके धर्म के अनुकूल सिद्ध किया ।।५५।। भगवान ऋषभनाथके पौत्र और महाराज भरतके पुत्र अतिशय चतुर मरीचिकुमारने सांख्य मतकी रचना कर उसका व्याख्यान अपने शिष्य कपिल ऋषिके लिए किया ॥५६॥ __अन्य राजा लोगोंने भी महत्त्वाकांक्षाके वशीभूत होकर अपनी-अपनी विद्वत्ताके अभिमानको प्रकट करनेके लिए आत्मरुचिके अनुसार कृत्रिम असत्य मतोंकी रचना की ।। ५.१॥ इस प्रकार क्रियावादी व अक्रियावादियों आदि के मिथ्यात्वको बढ़ानेवाले तीन सौ तिरसठ असत्य व बनावटी विविध प्रकारके मतोंका प्रचार उसी समयसे प्रारम्भ हुआ।५८|| शुक्र और बृहस्पति नामके दो राजा आत्मा व परलोकके अभावके सूचक चार्वाक मतको रचकर इच्छानुसार अपनी इन्द्रियोंके पुष्ट करनेमें प्रवृत्त हुए-इस लोक-सम्बन्धी विषयोपभोगमें स्वच्छन्दतासे मग्न हुए ।।५९।। ___ इस प्रकार भगवान् आदिनाथ के साथ दीक्षित हुए वे राजा अनेक प्रकार के कपटपूर्ण वेषोंको (अथवा अपमान या दुखको) प्राप्त हुए। ठीक है-समर्थ महापुरुषके द्वारा की जानेवाली क्रिया (अनुष्ठान) के करनेका इच्छुक हुआ कौन-सा कातर प्राणी विडम्बनाको नहीं प्राप्त होता है ? अवश्य ही वह विडम्बनाको प्राप्त हुआ करता है ।।६०|| ५५) क भक्षणो। ५७) ड स्वस्य for स्वस्व । ५८) क मिथ्यात्वदर्शनम् । ५९) ब शक्र for शुक्र । ६०) क विडम्बनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy