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धर्मपरीक्षा-१३ ईदृशो वः पुराणार्थः किं सत्यो वितथो ऽथ किम् । ब्रूत निर्मत्सरीभूय सन्तो नासत्यवादिनः ॥३७ अवोचन्नवनीदेवाः ख्यातो ऽयं' स्फुटमीदृशः। उदितो भास्करो भद्र पिधातुं केन शक्यते ॥३८ मनोवेगस्ततो ऽवादीत कणिकाविवरे विधेः। केशो लगति नो पोलो कुण्डिकाविवरे कथम् ॥३९ भज्यते नातसीस्तम्बः सविश्वस्ये कमण्डलोः । भारेणकेभयुक्तस्य भिण्डो मे भज्यते कथम् ॥४० विश्वं सर्षपमात्रे ऽपि सर्व माति कमण्डलो। ने सिंधुरो मया साधं कथं विप्रा महीयसि ॥४१
३८) १. पुराणार्थः। ३९) १. क ब्रह्मणः । २. क कुञ्जरस्य । ४०) १. सहसृष्टेः पूरितस्य कमण्डलोः । ४१) १. माति । २. कमण्डलो।
इस प्रकारका आपके पुराणका अर्थ-निरूपण-क्या सत्य है या असत्य है, यह आप लोग हमें मत्सरभावको छोड़कर कहें। कारण यह कि सत्पुरुष कभी असत्य भाषण नहीं किया करते हैं ॥३७॥
इस प्रकार मनोवेगके कहनेपर उन ब्राह्मणोंने कहा कि हे भद्र ! हमारे पुराणका यह अर्थ स्पष्टतया इसी प्रकारसे प्रसिद्ध है । सो ठीक भी है, उदयको प्राप्त हुए सूर्यको आच्छादित करनेके लिए भला कौन समर्थ हो सकता है ? कोई भी समर्थ नहीं है ॥३८॥
इसपर मनोवेगने कहा कि हे विप्रो! जब उस कमलकर्णिकाके छेद में ब्रह्माका बाल चिपककर रह सकता है तब भला कमण्डलुके छेदमें हाथीका बाल चिपककर क्यों नहीं रह सकता है ? ॥३९॥
इसी प्रकार कमण्डलुके भीतर स्थित विष्णुके उदरस्थ समस्त लोकके भारसे जब वह अलसीके वृक्षकी शाखा भग्न नहीं हुई तब भला केवल एक हाथीके साथ कमण्डलुके भीतर स्थित मेरे भारसे वह भिण्डीका वृक्ष कैसे भग्न हो सकता है ? ॥४०॥
उसके अतिरिक्त जब सरसोंके बराबर अतिशय छोटे उस कमण्डलुके भीतर समस्त विश्व ( सृष्टि) समा सकता है तब हे विप्रो ! उससे अपेक्षाकृत बड़े उस कमण्डलुके भीतर मेरे साथ हाथी क्यों नहीं समा सकता है ? ॥४१॥
३७) अ वितथोऽपि । ४०) इ स्तम्भः for स्तम्बः ।
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