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अमितगतिविरचिता उपेन्द्रेण ततो ऽभाषि प्रविश्य जठरं मम । आनन्देन निरीक्षस्व किं त्वं दुःखायसे वृथा ॥३१ तत्प्रविश्य ततो दृष्ट्वा सृष्टिं स्रष्टातुषत्तराम् । अपत्यदर्शने कस्य न संतुष्यति मानसम् ॥३२ तत्र स्थित्वा चिरं वेधाः सृष्टिं दृष्ट्वाखिला निजाम् । नाभिपङ्कजनालेन हरेनिरगमत्ततः ॥३३ दृष्ट्वा वृषणवालाग्नं विलग्नं तत्र संस्थिरम् । निष्क्रष्टुं दुःशकं ज्ञात्वा विगोपकविशङ्कितः ॥३४ तदेव कमलं कृत्वा स्वस्यासनमधिष्ठितः। विश्वं व्याप्तवती माया न देवैरपि मुच्यते ॥३५ । युगम् । ततः पद्मासनो जातः प्रसिद्धो भुवने विधिः।
महद्भिः क्रियमाणो हि प्रपञ्चो ऽपि प्रसिध्यति ॥३६ ३२) १. जठरे । २. निराबाधाम् । ३३) १. जठरात् । ३४) १. मनोजीवा (?) । २. नाले । ३. आकर्षितुम् । ३५) १. नाभिकमल।
___इसपर विष्णुने कहा कि मेरे पेटके भीतर प्रविष्ट होकर तुम मुखसे-अपने नेत्रोंसेउसे देख लो, व्यर्थमें क्यों दुखी हो रहे हो ॥३१॥
तब ब्रह्मा विष्णुके उदरके भीतर प्रविष्ट हुआ व वहाँ अपनी सृष्टिको देखकर अतिशय सन्तुष्ट हुआ। ठीक है-सन्तानके देखनेपर भला किसका मन सन्तुष्ट नहीं होता है ? उसको देखकर सभीका मन सन्तोषको प्राप्त होता है ॥३२॥
वहाँपर ब्रह्मा बहुत काल तक रहकर व अपनी समस्त सृष्टिको देखकर तत्पश्चात् विष्णुके नाभि-कमलके नालके द्वारा बाहर निकल आया ॥३३॥
परन्तु निकलते समय अण्डकोशके बालका अग्रभाग स्थिरताके साथ वहींपर चिपक गया। तब उसे वहाँ संलग्न देखकर व निकालने के लिए अशक्य जानकर ब्रह्माने निन्दाके भयसे उस कमलको ही अपना स्थान बना लिया और वहींपर अधिष्ठित हो गया। ठीक है, विश्वको व्याप्त करनेवाली मायाको देव भी नहीं छोड़ सकते हैं ।।३४-३५।।
तत्पश्चात् इसी कारणसे वह ब्रह्मा लोकमें 'पद्मासन' इस नामसे प्रसिद्ध हो गया। ठीक है, महाजनोंके द्वारा की जानेवाली प्रतारणा भी प्रसिद्धिको प्राप्त होती है-उसको भी साधारण जनोंके द्वारा प्रशंसा ही की जाती है ॥३६।।
३१) इ जठरे; अ ब क ड आननेन; क त्वं किं । ३२) क स्रष्टा सृष्टि तुतोष सः, ड स्रष्टा सृष्टिमनुत्तराम् । ३४) क ड इ दुःसहम् । ३५) अस्वस्थानमधितिष्ठतः; ड प्राप्त for व्याप्त । ३६) ब प्रविष्टो for प्रसिद्धो ।
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