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________________ धर्मंपरीक्षा - १३ प्रविष्टोऽत्रे ततः स्रष्टा श्रीपत वटपादपे । पत्रे शयितमद्राक्षी दुच्छ्रने जठरान्तरम् ॥२५ अवादि वेधसोपेन्द्र [न्द्रः] किं शेषे कमलापते । उत्तम्भितोदरोऽत्यन्तं निश्चलीभूतविग्रहः ॥२६ अभाषि विष्णुना स्रष्टा सृष्टिमेकार्णवे तव । अहमालोक्य नश्यन्तीं कृतवानुदरान्तरे ॥२७ शाखाव्याप्तहरि चक्र' वटवृक्षे महीयस े । पर्णे शषि विस्तीर्णे तत आध्मातकुक्षिकः ॥२८ पितामहस्ततो ऽलापीत् श्रीपते ऽकारि शोभनम् । रक्षित्वया सृष्टिजन्ती विप्लवे क्षयम् ॥२९ सुमिमां द्रष्टुं श्रीपते वर्तते मनः । अपत्यविरहो ऽत्यन्तं सर्वेषामपि दुस्सहः ॥३० * २५) १. कुण्डिकोदरे । २. स्थूल २८) १. दिक्समूहे । २. गरयसि । २९) १. ब्रह्मा । ३०) १. सृष्टिम् । २. वियोग । इसपर ब्रह्माने उनके कमण्डलुके भीतर प्रविष्ट होकर वटवृक्ष के ऊपर पत्तेपर सोते हुए विष्णुको देखा । उस समय उनका पेटका मध्य वृद्धिको प्राप्त हो रहा था ।।२५।। ૨૦/ यह देखकर ब्रह्माने उनसे कहा कि हे लक्ष्मीके पति विष्णो ! इस प्रकार पेटको ऊपर करके अत्यन्त निश्चल शरीर के साथ क्यों सो रहे हो ||२६|| इसके उत्तर में विष्णुने ब्रह्मासे कहा कि तुम्हारी सृष्टि एक समुद्र में नष्ट हो रही थीभागी जा रही थी । उसे देखकर मैंने अपने पेट के भीतर कर लिया है ||२७|| इसपर ब्रह्माने विचार किया कि इसीलिए विष्णु भगवान् पेटको फुलाकर दिङ्मण्डलको व्याप्त करनेवाले विशाल वट वृक्षके ऊपर विस्तीर्ण पत्तेपर सो रहे हैं ||२८|| तत्पश्चात् ब्रह्माने कहा कि हे लक्ष्मीपते ! तुमने यह बहुत अच्छा किया जो प्रलय में नाशको प्राप्त होनेवाली सृष्टिकी रक्षा की ||२९|| पुनः उसने कहा कि हे लक्ष्मीपते ! मेरा मन उस सृष्टिको देखने के लिए उत्सुक हो रहा है। और वह ठीक भी है, क्योंकि अपनी सन्तानका वियोग सभीको अत्यन्त दु:सह हुआ करता है ||३०|| Jain Education International २५) अइ श्रीपतिर्वट । २८) अ इ व्याप्ते हरिश्चक्रे; अ व ततो ऽत्रामा । २९) क ड ततोऽलापि; ब विष्टपे for विप्लवे । ३० ) इ दुस्त्यजः । २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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