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________________ २०८ अमितगतिविरचिता अगस्त्यजठरे माति सागरीयं पयो ऽखिलम् । न कुण्डिकोदरे हस्ती मया साध कथं द्विजाः ॥१९ नष्टामेकार्णवे सृष्टिं स्वकीयां कमलासनः। बभ्राम व्याकुलोभूय सर्वत्रापि विमार्गयन् ॥२० उपविष्टस्तै रोर्मूले तेने सर्षपमात्रिकाम् । अगस्त्यो ऽदशि शाखायामतस्यां न्यस्य कुण्डिकाम् ॥२१ अगस्त्यमुनिना दृष्ट वा सो ऽभिवाद्येति भाषितः । बम्भ्रमोषि विरिञ्चे त्वं क्वैवं व्याकुलमानसः ॥२२ स शंसति स्म मे साधो सृष्टिः क्वापि पलायिता। गवेषयन्निमां मूढो भ्रमामि पहिलोपमः ॥२३ अगस्त्येनोदितो धाता कुण्डिका जठरे मम । तां प्रविश्य निरीक्षस्व मास्मान्यत्र गमो विधे ॥२४ १९) १. यदा। २०) १. प्रलयकाले । २. क शोधयन् । २१) १. वृक्षस्य । २. ब्रह्मणा । ३. सर्षपस्य शाखायां कुण्डिकाम् अवलम्ब्य । २२) १. नमस्कारं विधाय । २. हे ब्रह्मत् । २३) १. उक्तवान्; क कथयामास । २४) १. ब्रह्मा । २. सृष्टिम्; क प्रजा । ३. गच्छ । है। हे विप्रो! आपके आगममें यह सुना जाता है कि अंगूठेके बराबर अगस्त्य ऋषिने समुद्र के समस्त जलको पी लिया था। इस प्रकार उन अगस्त्य ऋषिके पेट में जब समुद्रका वह अपरिमित जल समा सकता है तब हे ब्राह्मणो! कमण्डलुके भीतर मेरे साथ वह हाथी क्यों नहीं समा सकता है ? ॥१७-१९॥ एक समुद्रमें नष्ट हुई अपनी सृष्टिको खोजता हुआ ब्रह्मा व्याकुल होकर सर्वत्र घूम रहा था ॥२०॥ ___ उसने इस प्रकारसे घूमते हुए अलसीके वृक्षके नीचे उसकी शाखाके ऊपर सरसोंके बराबर कमण्डलुको टाँगकर बैठे हुए अगस्त्य ऋषिको देखा ॥२१॥ तब अगस्त्य मुनिने देखकर अभिवादनपूर्वक उससे पूछा कि हे ब्रह्मन् ! इस प्रकारसे व्याकुलचित्त होकर तुम कहाँ घूम रहे हो ॥२२॥ __ इसपर ब्रह्माने कहा कि हे साधो! मेरी सृष्टि कहीं पर भागकर चली गयी है। उसे खोजता हुआ मैं भूताविष्टके समान मूढ होकर इधर-उधर घूम रहा हूँ ॥२३॥ __ यह सुनकर अगस्त्य मुनिने ब्रह्मासे कहा कि हे ब्रह्मन् ! तुम मेरे कमण्डलुके भीतर प्रविष्ट होकर उस सृष्टिको देख लो, अन्यत्र कहींपर भी मत जाओ॥२४॥ १९) अ ब आगस्त्यं । २१) ब°मात्रिकी; अब इ मतस्या, ड°मेतस्या। २३) अ शंसति स्म स....प्रथिलोपमाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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