SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा-१२ १९७ प्रताड्य खेचरो भेरीमारूढः कनकासने । स वाद्यागमनाशकां कुर्वाणो द्विजमानसे ॥५५ निर्गता माहनाः' सर्वे श्रुत्वा तं भेरिनिःस्वनम् । पक्षपातपरा मेघप्रध्वानं शरभा इव ॥५६ वादं करोषि कि साधो ब्राह्मणैरिति भाषिते । खेटपुत्रो ऽवदद्विप्रा वादनामापि वेद्मि नो ॥५७ द्विजाः प्राहुस्त्वया भेरी किं मुर्खेण सता हता। खेटेनोक्तं हता भेरी कौतुकेन मया द्विजाः ॥१८ आजन्मापूर्वमालोक्य निविष्टः काञ्चनासने। न पुनर्वादिदर्पण मह्यं मा कोपिषुद्विजाः ॥५९ विप्रैः पृष्टो गुरुर्भद्र कस्त्वदीयो निगद्यताम्। स प्राह मे गुरुर्नास्ति तपो ऽग्राहि मया स्वयम् ॥६० ५६) १. विप्राः । २. गर्जनम् क मेघशब्द । ३, सिंहा इव, अष्टापदा इव । ५९) १. क भो द्विजा भवन्तः । __ वहाँ वह विद्याधरकुमार भेरीको ताड़ित कर-बजाकर-ब्राह्मणोंके मनमें प्रवादीके आनेकी आशंकाको उत्पन्न करता हुआ सुवर्ण-सिंहासनके ऊपर बैठ गया ॥५५।। तब उस भेरीके शब्दको सुनकर सब ब्राह्मण अपने पक्षके स्थापित करने में तत्पर होते हुए अपने-अपने घरसे इस प्रकार निकल पड़े जिस प्रकार कि मेघके शब्दको सुनकर अष्टापद (एक हिंसक पशुको जाति ) अपनी-अपनी गुफासे बाहर निकल पड़ते हैं ॥५६॥ हे सत्पुरुष ! तुम क्या वाद करनेको उद्यत हो, इस प्रकार उन ब्राह्मणोंके पूछनेपर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! हम तो वादका नाम भी नहीं जानते हैं ॥५७|| इसपर ब्राह्मण बोले कि तो फिर तुमने मुर्ख होते हुए इस भेरीको क्यों ताड़ित किया है। यह सुनकर मनोवेगने उत्तर दिया कि हे ब्राह्मणो ! मैंने उस भेरीको कुतूहलसे ताड़ित किया है, वादकी इच्छासे नहीं ताड़ित किया ॥५८।। हे विप्रो ! मैंने जीवनमें कभी ऐसा सुवर्णमय सिंहासन नहीं देखा था, इसीलिए इस अपूर्व सिंहासनको देखकर उसके ऊपर बैठ गया हूँ, मैं वादी होनेके अभिमानसे उसके ऊपर नहीं बैठा हूँ, अतएव आप लोग मेरे ऊपर क्रोध न करें ॥५९।। यह सुनकर ब्राह्मणोंने उससे पूछा कि हे भद्र पुरुष ! तुम्हारा गुरु कौन है, यह हमें बतलाओ । इसपर मनोवेगने कहा कि मेरा गुरु कोई भी नहीं है, मैंने स्वयं ही तपको ग्रहण किया है ॥६॥ ५६) इ ब्राह्मणाः । ५७) अ कं for किम् । ५९) अ क निविष्टम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy